________________ जैन धर्म एवं दर्शन-697 जैन- आचार मीमांसा-229 . 7. अरति-परीषह - मुनि-जीवन में सुख-सुविधाओं का अभाव है, इस प्रकार का विचार न करे। संयम में अरूचि हो, तो भी मन लगाकर उसका पालन करे। 8. स्त्री-परीषह - स्त्री-संग को आसक्ति, बन्धन और पतन का कारण जानकर स्त्री-संसर्ग की इच्छा न करे और उनसे दूर रहे। साष्टि वयों के संदर्भ में यहाँ पुरूष-परीषह समझना चाहिए। 9. चर्या-परीषह - पदयात्रा में कष्ट होने पर भी चातुर्मास-काल को छोड़कर गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि से अधिक न रूकता हआ सदैव भ्रमण करता रहे। मुनि के लिए एक स्थान पर मर्यादा से अधिक रूकना निषिद्ध है। . 10. निषद्या-परीषह - स्वाध्याय आदि के हेतु एकासन में बैठना पड़े, अथवा बैठने के लिए विषम भूमि उपलब्ध हो, तो भी मन में दुःखित न होकर उस कष्ट को सहन करे। - 11. शय्या-परीषह - ठहरने अथवा सोने के लिए विषम भूमि हो तथा तृण, पराल आदि भी उपलब्ध न हों, तो उस कष्ट को सहन करे और श्मशान, शून्यगृह या “वृक्षमूल में ही ठहर जाए। 12. आक्रोश-परीषह - यदि कोई भिक्षु को कठोर एवं कर्कश शब्द कहे, अथवा अपशब्द कहे, तो भी उन्हें सहन कर उसके प्रति क्रोध न करे। 13. वध-परीषह - यदि कोई मुनि को लकड़ी आदि से मारे, अथवा अन्य प्रकार से उसका वध या ताड़न करे, तो भी उस पर समभाव रखे। ... 14. याचना-परीषह - भिक्षावृत्ति में सम्मान को ठेस लगती है तथा आवश्यक वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त नहीं होती हैं, ऐसा विचार कर मन में दुःखी न हो, वरन् मुनि-मर्यादा का पालन करते हुए भिक्षावृत्ति करे। 15. अलाभ-परीषह - वस्त्र, पात्र आदि सामग्री अथवा आहार प्राप्ति नहीं होने पर भी मुनि समभाव रखे और तद्जन्य अभाव के कष्ट को सहन करे। . 16. रोग-परीषह - शरीर में व्याधि उत्पन्न होने पर भी भिक्षु