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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-699 जैन - आचार मीमांसा -231 कृतिकर्म-कल्प, (6) व्रत-कल्प, (7) ज्येष्ठ-कल्प, (8) प्रतिक्रमण-कल्प, (9) मास-कल्प और (10) पर्युषण-कल्प। * (1) आचेलक्य-कल्प - आचेलक्य शब्द की व्युत्पत्ति अचेलक शब्द से हुई है। चेल वस्त्र का पर्यायवाची है, अतः अचेलक का अर्थ है-वस्त्ररहित / दिगम्बर-परम्परा के अनुसार, आचेलक्य-कल्प का अर्थ है - मुनि को वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए। श्वेताम्बर-परम्परा अचेल शब्द को अल्पवस्त्र का सूचक मानती है और इसलिए उनके अनुसार आचेलक्य-कल्प का अर्थ है - कम से कम वस्त्र धारण करना। (2) औद्देशिक-कल्प - औद्देशिक-कल्प का अर्थ यह है कि मुनि को उनके निमित्त बनाए गए, लाए गए अथवा खरीदे गए आहार, पेय पदार्थ, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण तथा निवासस्थान को ग्रहण नहीं करना चाहिए। इतना ही नहीं, किसी भी श्रमण अथवा श्रमणी के निमित्त बनाए गए या लाए गए पदार्थो का उपभोग सभी श्रमण और श्रमणियों के लिए वर्जित है। महावीर के पूर्व तक परम्परा यह थी कि जैन–श्रमण अपने स्वयं के लिए बनाए गए आहार आदि का उपभोग नहीं कर सकता था, लेकिन वह दूसरे श्रमणों के लिए बनाए गए आहार आदि का उपभोग कर सकता था। महावीर ने इस नियम को संशोधित कर किसी भी श्रमण के लिए बने औद्देशिक-आहार आदि पदार्थो का ग्रहण वर्जित माना। (3) शय्यातर-कल्प - श्रमण अथवा श्रमणी जिस व्यक्ति के आवास (मकान) में निवास करे, उनके यहाँ से किसी भी पदार्थ का ग्रहण करना वर्जित है। (4) राजपिण्ड-कल्प - राजभवन से राजा के निमित्त बनाए गए किसी भी पदार्थ का ग्रहण करना वर्जित है। (5) कृतिकर्म-कल्प - दीक्षा-वय में ज्येष्ठ श्रमणों के आने पर उनके समान में खड़ा हो जाना तथा यथाक्रम ज्येष्ठ मुनियों को वन्दना करना कृतिकर्म-कल्प है। यहाँ विशेष स्मरणीय यह है कि साध्वी के लिए अपने से कनिष्ठ श्रमणों को भी वन्दन करने का विधान है। एक दीक्षा-वृद्ध साध वी के लिए भी नव दीक्षित श्रमण के वन्दन का विधान हैं। सम्भवतः, इसके पीछे हमारे देश की पुरूषप्रधान सभ्यता का ही प्रभाव है।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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