________________ जैन धर्म एवं दर्शन-690 जैन - आचार मीमांसा -222 अर्थ के अनुसार मन, वचन और काया को अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना गुप्ति है और दूसरे अर्थ के अनुसार, आत्मा की अशुभ से रक्षा करना गुप्ति है। गुप्तियां तीन हैं - 1. मनोगुप्ति, 2. वचन-गुप्ति और 3. काय-गुप्ति। ___ 1. मनोगुप्ति - मन को अप्रशस्त, कुत्सित एवं अशुभ विचारों से दूर रखना मनोगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, श्रमण सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ की हिंसक-प्रवृत्तियों में जाते हुए मन को रोके, यही मनोगुप्ति है। श्रमण को दूषित वृतियों में जाते हुए मन को रोककर मनोगुप्ति का अभ्यास करना चाहिए। ___ 2. वचनगुप्ति - असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं करना वचनगुप्ति है। नियमसार के अनुसार, स्त्री-कथा, राजकथा, चोर-कथा, भोजन-कथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति एवं असत्य वचन का परिहार वचनगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि श्रमण अशुभ प्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का विरोध करे। _3. कायगुप्ति - नियमसार के अनुसार, बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन तथा प्रसारण आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है। उत्तराध ययनसूत्र के अनुसार श्रमण उठने, बैठने, लेटने, नाली आदि लांघन तथा पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति में शरीर की क्रियाओं का नियमन करे। उत्तराध्ययनसूत्र में मुनि-जीवन के लिए इन तीन गुप्तियों का विधान अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्ति होने के लिए है। श्रमण-साधक इन तीनों गुप्तियों के द्वारा अपने को अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रखे, यही इसका हार्द है। संक्षेप में, राग-द्वेष आदि से निवृत्ति मनोगुप्ति है, असत्य वचन से निवृत्ति एवं मौन वचनगुप्ति है और शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति तथा कायोत्सर्ग कायगुप्ति है। पाँच समितियाँ समिति शब्द की व्याख्या सम्यक्-प्रवृत्ति के रूप में की गई है। समिति श्रमण-जीवन की साधना का विधायक–पक्ष है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनुसार, समितियाँ आचरण की प्रवृत्ति के लिए है। श्रमण-जीवन में शरीर-धारण के लिए अथवा संयम के निर्वाह के लिए जो क्रियाएँ की जाती है, उनकों विवेकपूर्वक संपादित करना ही समिति है। समितियाँ पाँच