________________ जैन धर्म एवं दर्शन-689 जैन- आचार मीमांसा-221 है। श्वेताम्बर-परम्परा में रात्रि भोजन-परित्याग का उल्लेख छठवें महाव्रत के रूप में भी हुआ है। दशवैकालिकसूत्र में इसे छठवाँ महाव्रत कहा गया है। मुनि सम्पूर्ण रूप से रात्रि भोजन का परित्याग करता है। रात्रि भोजन का निषेध अहिंसा के महाव्रत की रक्षा एवं संयम की रक्षा - दोनों ही दृष्टि से आवश्यक माना गया है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि मुनि सूर्य के अस्त हो जाने पर सभी प्रकार के आहारादि के भोग की इच्छा मन से भी न करे। सभी महापुरूषों ने इसे नित्य-तप का साधन कहा है। यह एक समय भोजन की वृत्ति संयम के अनुकूल है, क्योंकि रात्रि में आहार करने से अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा की सम्भावना रहती है। रात्रि में पृथ्वी पर ऐसे सूक्ष्म, त्रस एवं स्थावर जीव व्याप्त रहते हैं कि रात्रि-भोजन में उनकी हिंसा से बचा नहीं जा सकता है। यही कारण है कि निर्ग्रन्थ मुनियों के लिए रात्रि भोजन का निषेध है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र ने रात्रि भोजन के विषय में दो आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं। प्रथम तो यह कि दिन की अपेक्षा रात्रि में भोजन के प्रति तीव्र आसक्ति रहती है और रात्रि भोजन करने से ब्रह्मचर्य-महाव्रत का निर्विघ्न पालन संभव नहीं होता। दूसरे, रात्रि भोजन में भोजन के पकाने अथवा प्रकाश के लिए जो अग्रि या दीपक प्रज्वलित किया जाता है, उसमें भी उनके जन्तु आकर जल जाते हैं तथा भोजन में भी गिर जाते है, अतः रात्रि-भोजन हिंसा से मुक्त नहीं है। - गुप्ति एवं समिति पूर्वोक्त महाव्रतों के रक्षण एवं उनकी परिपुष्टि करने के लिए जैन-परम्परा में पांच समितियों और तीन गुप्तियों का विधान है। इन्हें अष्ट-प्रवचनमाता भी कहा जाता है। ये आठ गुण श्रमण-जीवन का संरक्षण उसी प्रकार करते हैं, जैसे माता अपने पुत्र का करती है, इसीलिए इन्हें माता कहा गया है। इनमें तीन गुप्तियाँ श्रमण-साधना का निषेधात्मक-पक्ष प्रस्तुत करती हैं और पांच समितियाँ विधेयात्मक पक्ष प्रस्तुत करती हैं। - तीन गुप्तियाँ .. गुप्ति शब्द गोपन से बना है, जिसका अर्थ है-खींच लना, दूर कर ; लेना / गुप्ति शब्द का दूसरा अर्थ ढंकने वाला या रक्षा-कवच भी है। प्रथम