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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-688 जैन- आचार मीमांसा-220 बार मुनि आवश्यक उपकरणों में अहिंसा एवं संयम की रक्षा करने के लिए. वृद्धि कर दी गई, तो परवर्ती आचार्यगण न केवल संयम की रक्षा के लिए, वरन् अपनी सुख-सुविधाओं के लिए भी मुनि के उपकरणों में वृद्धि करते रहे हैं। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो कमजोरियों के दबाने तथा भोजन-वस्त्र की प्राप्ति के निमित्त भी उपकरण रखे जाने लगे। परतीर्थिक-उपकरण, गुलिका, खोल आदि इसके उदाहरण हैं। वस्तुतः, जैन-श्रमण के लिए जिस रूप में आवश्यक सामग्री रखने का विधान है, उसमें संयम की रक्षा ही प्रमुख है। उसके उपकरण धर्मोपकरण कहे जाते है, अतः मुनि को वे ही वस्तुए अपने पास रखनी चाहिए, जिनके द्वारा वह संयम-यात्रा का निर्वाह कर सके। इतना ही नहीं, उसे उन उपकरणों पर तो क्या, अपने शरीर पर भी महत्व नहीं रखना चाहिए। अपरिग्रह-महाव्रत के लिए जीन पांच भावनाओं का विधान किया गया है, वे पांचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का निषेध करती है। मुनि को इन्द्रियों के विषयों में आसक्त और कषायों के वंशीभूत नहीं होना चाहिए, यही उसकी अपरिग्रह-वृत्ति है। अपरिग्रह-महाव्रत के अपवाद सामान्यतया, दिगम्बर–मुनि के पूर्वोक्त तीन तथा श्वेताम्बर-मुनि के लिए पूर्व निर्दिष्ट चौदह उपकरणों के रखने का ही विधान है। विशेष परिस्थितियों में वह उनसे अधिक उपकरण भी रख सकता है, उदाहरणार्थ - भिक्षु सेवा भाव की दृष्टि से अतीरिक्त पात्र रख सकता है, अथवा विष-निवारण के लिए स्वर्ण घिसकर उसका पानी रोगी को देने के लिए वह स्वर्ण को ग्रहण भी कर सकता है। इसी प्रकार, अपवादीय-स्थिति में वह छत्र, चर्म-छेदन आदि अतिरिक्त वस्तुए रख सकता है तथा वृद्धावस्था एवं बीमारी के कारण एक स्थान पर अधिक समय तक ठहर भी सकता है। वर्तमानकाल में जैन–श्रमणों द्वारा रखे जाने वाली पुस्तक, लेखनी, कागज, मसि आदि वस्तुएं भी अपरिग्रह-व्रत का अपवाद ही हैं। प्राचीन ग्रन्थों में पुस्तक रखना प्रायश्चित्त योग्य अपराध था। रात्रिभोजन-परित्याग रात्रिभोजन-परित्याग दिगम्बर-परम्परा के अनुसार श्रमण का मूलगुण
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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