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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-687 जैन- आचार मीमांसा -219 पुरूषवेद, 10. नंपुसकवेद, 11. क्रोध, 12. मान, 13. माया और 14. लोभ / यद्यपि श्रमणं के लिए सभी प्रकार का आभ्यन्तर एवं बाह्य-परिग्रह त्याज्य है,. तथापि भिक्षु-जीवन की आवश्यकताओ की दृष्टि से श्रमण को कुछ वस्तुए रखने की अनुमति है। बाह्य-परिग्रह की दृष्टि से श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में किंचित मतभेद है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार, श्रमण की आवश्यक वस्तुओं (उपधि), को तीन भागों में बाटा जा सकता है - 1. ज्ञानोपधि (शास्त्र-पुस्तक आदि), 2. संयमोपधि (मोर के परों से बनी पिच्छि), 3. शौचोपधि (शरीर-शुद्धि के लिए जल ग्रहण करने का पात्र या कमण्डलु)। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार, मुनि को वस्त्र आदि अन्य सामाग्री के रखने का निषेध है। __ श्वेताम्बर-परम्परा के मूल-आगमों के अनुसार, भिक्षु चार प्रकार की वस्तुए रख सकता है - 1. वस्त्र, 2. पात्र, 3. कम्बल और 4. रजोहरण। आचारांगसूत्र के अनुसार स्वथ्य मुनि एक वस्त्र रख सकता है, साध्वीयों का चार वस्त्र रखने का विधान है। इसी प्रकार, मुनि एक से अधिक पात्र नहीं रख सकता। आचारांग में मुनि के वस्त्रों के नाप के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट वर्णन नहीं है, यद्यपि साध्वी के चार वस्त्रों में एक दो हाथ का, दो तीन हाथ के और एक चार हाथ का होना चाहिए। प्रश्न-व्याकरणसूत्र में मुनि के लिए चौदह प्रकार के उपकरणों का विधान है- 1. पात्र-जो कि लकड़ी, मिट्टी अथवा तुम्बी का हो सकता है, 2. पात्रबन्ध-पात्रों को बाधने का कपड़ा, 3. पात्र स्थापना-पात्र रखने का कपड़ा, 4. पात्र-केसरीका-पात्र पोछने का कपड़ा, 5. पटल-पात्र ढंकने का कपड़ा, 6. रजस्ताण, 7. गोच्छक, 8-10. प्रच्छादक-ओढ़ने की चादर, मुनि विभिन्न नापों की तीन चादरें रख सकता है, इसलिए ये तीन उपकरण माने गये है, 11. रजोहरण, 12. मुखवस्त्रिका, 13. मात्रक और 14. चोलपट्ट / ये चौदह वस्तुएँ रखना श्वेताम्बर–मुनि के लिए आवश्यक है, क्योंकि इनके अभाव में वह संयम का पालन समुचित रूप से नहीं कर सकता। बृहद्कल्पभाष्य एवं परवर्ती ग्रन्थों में उपर्युक्त सामग्रीयों के अतीरिक्त भी चिलमिलिका (पर्दा), दण्ड, छाता, पादप्रोछन, सूचिका (सुई) . आदि अनेक वस्तुओं के रखने की अनुमति है। विस्तार-भय उन सब की चर्चा में जाना आवश्यक नहीं है। वस्तुतः, ऐसा प्रतीत होता हैं कि जब एक
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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