SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-686 जैन- आचार मीमांसा -218 संपत्ति, पशु आदि) तथा आभ्यन्तर (क्रोध, मान आदि) परिग्रह का त्याग करना होता है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया हैं कि श्रमण को सभी प्रकार के परिग्रह का, चाहे वह अल्प हो या अधिक हो, चाहे वह जीवनयुक्त (शिष्य आदि पर ममत्व रखना अथवा माता-पिता की आज्ञा के बिना किसी को शिष्य बनाकर अपने पास रखना जीवन युक्त परिग्रह है) हो अथवा निर्जीव वस्तुओं का हो, त्याग कर देना होता है। श्रमण मन, वचन और काय-तीनों से ही न परिग्रह रखे, न रखवाए और न परिग्रह रखने का अनुमोदन करे। परिग्रह या संचय करने की वृत्ति आन्तरिक-लोभ की ही घोतक है, इसलिए जो श्रमण किसी प्रकार का संग्रह करता है, वह श्रमण न होकर गृहस्थ ही है। . जैन-आगमों के अनुसार, परिग्रह का वास्तविक अर्थ बाह्य-वस्तुओं का संग्रह नहीं वरन् आन्तरिक-मूच्छा भाव या आसक्ति ही है। तत्त्वार्थसूत्र में मूर्छा या आसक्ति को ही परिग्रह कहा गया है। यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराएँ परिग्रह की दृष्टि से आसक्ति को ही प्रमुख तत्त्व स्वीकार करती है, तथापि श्रमण-जीवन में बाह्य-वस्तुओं की दृष्टि से भी परिग्रह के सम्बन्ध में विचार किया गया है। दिगम्बर-परम्परा श्रमण के बाह्य-परिग्रह को ही अत्यन्त सीमित करने का प्रयास करती है, जबकि श्वेताम्बर-परम्परा श्रमण के बाह्य-परिग्रह की दृष्टि से अधिक लोच पूर्ण दृष्टिकोण रखती है। यही कारण है कि श्वेताम्बर-परम्परा में श्रमण के बाह्य-परिग्रह के सन्दर्भ में परवर्तीकाल में काफी परिवर्द्धन एवं विकास देखा जाता है। जैन-आगमों में परिग्रह दो प्रकार माना गया है-1. बाह्य परिग्रह और 2. आभ्यन्तरिक-परिग्रह / बाह्य-परिग्रह में इन वस्तुओं का समावेश होता है - 1. क्षेत्र (खुली भूमि), 2. वस्तु (भवन), 3. हिरण्य (रजत), 4. स्वर्ण, 5. धन (सम्पत्ति), 6. धान्य, 7. द्विपद (दास-दासी), 8. चतुष्पद (पशु आदि) और 9. कुप्य (घर-गृहस्थी का सामान)। जैन-श्रमण उक्त सब परिग्रहों को परित्याग करता है। इतना ही नही, उसे चौदह प्रकार के आभ्यन्तरिक-परिग्रह का भी त्याग करना होता है, जैसे - 1. मिथ्यात्व, 2. हास्य, 3. रति, 4. अरति, 5. भय, 6. शोक, 7. जुगुप्सा, 8. स्त्रीवेद, 9.
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy