________________ जैन धर्म एवं दर्शन-685 जैन- आचार मीमांसा-217 गुरू अथवा वरिष्ठ मुनि शयन करते हो, उसी स्थान पर शयन करे, एकान्त में नहीं सोए। ___ इस प्रकार, जैन आचार-विधि में जहाँ ब्रह्मचर्य-पालन को इतना अधिक महत्व दिया गया है, वहाँ उसकी रक्षा के लिए भी कठोरतम नियमों एवं मर्यादाओं का विधान है। आचारांगसूत्र में ब्रह्मचर्य-महाव्रत की पांच भावनाएँ कही गई है -1. निर्ग्रन्थ स्त्री सम्बन्धी बाते न करे, क्योंकि ऐसा करने से उसके चित्त की शांति भंग होकर धर्म से भ्रष्ट होना सम्भव है, 2. स्त्रियों के अंगोपांग को विषय-बुद्धि से न देखे, 3. पूर्व में की हुई कामक्रीडा का स्मरण न करे, 4. मात्रा से अधिक एवं कामोद्दिपक आहार न करे, 5. स्त्री, मादापशु एवं नंसुपक के आसन एवं शय्या का उपयोन करे। जो श्रमण उपर्युक्त सावधानियों को रखते हुए ब्रह्मचर्य-महाव्रत का पालन करता है, उसके सम्बन्ध में ही यह कहा जा सकता हैं कि वह संसार के सभी दुखों से छुटकर वीतराग–अवस्था को प्राप्त कर लेता है। ब्रह्मचर्यव्रत के अपवाद - सामान्यतया, ब्रह्मचर्यव्रत में कोई भी अपवाद स्वीकार नही किया गया है। ब्रह्मचर्य-महाव्रत का निरपवाद रूप से पालन करना ही अपेक्षित है। मूल-आगमों में ब्रह्मचर्य के खण्डन करने के लिए किसी भी अपवाद-नियम को उल्लेख उपलब्ध नहीं है। ब्रह्मचर्य-महाव्रत के सन्दर्भ में जिन अपवादो का उल्लेख मूल-आगमों में पाया जाता है, उनका सम्बन्ध मात्र ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के नियमो से है। सामान्यरूप से श्रमण के लिए स्त्री स्पर्श वर्जित है, लेकिन अपवादरूप में वह नदी में डूबती हुई, अथवा क्षिप्तचित्त भिक्षुणी को पकड़ सकता है। इसी प्रकार, रात्री में सर्पदंश की स्थिति हो और अन्य कोई उपचार का मार्ग न हो, तो श्रमण स्त्री से और साध्वी पुरूष से अवमार्जन आदि स्पर्श सम्बन्धी चिकित्सा कराए, तो वह कल्प्य है, साथ ही साधु या साध्वी के पैर में काँटा लग जाए और अन्य किसी भी तरह निकालने की स्थिति न हो, तो वे परस्पर एक-दूसरे से निकलवा सकते ... अपरिग्रह-महाव्रत यह श्रमण का पाँचवाँ महाव्रत है। श्रमण को समस्त बाह्य (स्त्री,