________________ जैन धर्म एवं दर्शन-691 जैन- आचार मीमांसा-223 हैं - 1. ईर्या (गमन), 2. भाषा, 3. एषणा (याचना), 4. आदानभण्डनिक्षेपण और 5. उच्चारादि-प्रतिस्थापन। - 1. ईर्या-समिति - प्राणियों की रक्षा करते हुए सावधानीपूर्वक आवागमन की क्रिया करना ईर्या-समिति हैं। श्रमण के लिए यह आवश्यक है कि उसकी आवागमन की क्रिया इस प्रकार हो, जिसमें यथासंभव प्राणीहिंसा न हो। सामान्य रूप से श्रमण को चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलना चाहिए तथा दिन में ही चलना चाहिए, सूर्यास्त के पश्चात् नहीं, क्योंकि यदि वह सामने देखकर नहीं चलेगा और रात्रि में आवागमन की क्रिया करेगा; तो उसमें प्राणीहिंसा की सम्भावना रहेगी। मुनि के लिए चलते समय बातचीत करना, पढ़ना, चिंतन करना आदि क्रियाए भी निषिद्ध हैं। यदि वह उपर्युक्त क्रियाएँ करते हुए चलेगा, तो वह सावधानीपूर्वक आवागमन नहीं कर सकेगा। कहा गया है कि मुनि को चलते समय पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा पाँचों प्रकार के स्वाध्यायों को छोड़कर, मात्र चलने की क्रिया में ही लक्ष्य रखकर चलना चाहिएं आचारांगसूत्र में इसकी विस्तार से चर्चा है। नीचे उसी आधार पर कुछ प्रमुख नियम प्रस्तुत हैं 1. चलते समय सावधानीपूर्वक सामने की भूमि को देखते हुए चलना चाहिए। 2. चलते समय हाथ-पैरों को आपस में टकराना नहीं चाहिए। - 3. भय और विस्मय तजकर चलना चाहिए। 4. भाग-दौड़ न करके मध्यम गति से चलना चाहिए। 5. चलते समय पाँवों को एक-दूसरे से अधिक अन्तर पर रखकर नहीं चलना चाहिए। ... 6. हरी वनस्पति, तृण-पल्लव आदि से एक हाथ दूर चलना चाहिए। ____7. प्राणियों, वनस्पति और जल जीवों की हिंसा की संभावना से युक्त - छोटे रास्ते से न चलकर, इनसे रहित लम्बे मार्ग से ही जाना चाहिए। __ 8. यदि वर्षा के कारण मार्ग में छोटे-छोटे जीव-जन्तु और वनस्पति उत्पन्न हो गई हो, अंकुर फुट निकले हों, तो मुनि भ्रमण रोककर चातुर्मास-अवधि तक एक ही स्थान पर रहे। . ... 9. वर्षा-ऋतु के पश्चात् भी यदि मार्ग जीव-जन्तु और वनस्पति से