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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-683 जैन- आचार मीमांसा-215 सम्बन्ध आवास से है। व्यवहारसूत्र में कहा गया है कि यदि भिक्षु-संघ लम्बा विहार कर किसी अज्ञात ग्राम में पहुँचता है और उसे ठहरने के लिए स्थान नहीं मिल रहा हो तथा बाहर वृक्षों के नीचे ठहरने से भंयकर शील की वेदना अथवा जंगली पशुओं के उपद्रव की सम्भावना हो, तो ऐसी स्थिति में वह बिना आज्ञा प्राप्त किए भी योग्य स्थान पर ठहर जाए और उसके बाद आज्ञा प्राप्त करने का प्रयास करे। ब्रह्मचर्य महाव्रत यह श्रमण का चतुर्थ महाव्रत है। जैन-आगमों में अहिंसा के बाद ब्रह्मचर्य का ही महत्वपूर्ण स्थान है। कहा गया है कि जो दुख दुष्कर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करता है, उसे देव, दानव और यक्ष आदि सभी नमस्कार करते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है, यम और नियमरूप प्रधान गुणों से युक्त है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनुष्य का अन्तःकरण प्रशस्त, गम्भीर और स्थिर हो जाता है। ब्रह्मचर्य साधुजनों द्वारा आचरित मोक्ष का मार्ग है। पाँचों महाव्रतों में अत्यन्त (निरपवाद) पालन किया जाने वाला है। ब्रह्मचर्य भंग होने पर सभी व्रत तत्काल भंग हो जाते हैं। सभी व्रत-नियम, शील, तप, गुण आदि दही के समान मथित हो जाते हैं, चूर-चूर हो जाते हैं, खंडित हो जाते हैं, उनका विनाश हो जाता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में श्रमण के लिए ब्रह्मचर्य-महाव्रत को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है। अब्रह्मचर्य आसक्ति और मोह का कारण होने से आत्मा के पतन का महत्वपूर्ण कारण है, अतः आत्मविकास के लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। जैन–श्रमण के लिए समस्त प्रकार का मैथुन त्रिकरण और त्रियोग से वर्जित है। ब्रह्मचर्य की साधना में जितनी आंतरिक-सावधानी रखना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक सावधानी बाह्य-जीवन एवं संयोगों के लिए भी आवश्यक है। क्योंकि उच्चकोटि का श्रमण भी निमित्त के मिलने पर बीजरूप में रही हुई वासना के द्वारा कब पतन के मार्ग पर चला जाएगा, यह कहना कठिन है, अतः ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए साधक को अपने बाह्य-जीवन में उपस्थित होने वाले अवसरों के प्रति भी सदैव जाग्रत रहना आवश्यक है। उत्तराध
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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