________________ जैन धर्म एवं दर्शन-682 जैन- आचार मीमांसा-214 जाने पर ही ग्रहण करना चाहिए। जैन-दृष्टिकोण के अनुसार, अस्तेय-महाव्रत का पालन करना इसलिए आवश्यक हैं कि चौर्यकर्म भी एक प्रकार की हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि अर्थ या सम्पत्ति प्राणीयों का बाह्य-प्राण है, क्योंकि इस पर उनका जीवन आधारित रहता है, इसलिए किसी की वस्तु का हरण उसके प्राणों के हनन के समान है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी कहा गया है कि यह अदत्तादान (चोरी), संताप, मरण एवं भयरूपी पातकों का जनक है, दूसरे के धन के प्रति लोभ उत्पन्न करता है। यह अपयश का कारण और अनार्य-कर्म है, साधुजन इसकी सदैव निन्दा करते है, इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया हैं कि श्रमण छोटी अथवा बड़ी, सचित्त अथवा अचित्त कोई भी वस्तु, चाहे वह दाँत साफ करने का तिनका ही क्यों न हो, बिना दिए न ले। न स्वयं उसे ग्रहण करे, न अन्य के द्वारा ही उसे ले और न लेने वाले का अनुमोदन ही करे। . अस्तेय-महाव्रत के सम्यक् परिपालन के लिए आचारांगसूत्र में पाँच भावनाओं का विधान है - 1. श्रमण विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे, 2. याचित आहारादि वस्तुओं का उपभोग न करे, 3. श्रमण अपने लिए निश्चित परिमाण में ही वस्तुओं की याचना करे, 4. श्रमण को जब भी कोई आवश्यकता हो, उस वस्तु की मात्रा का परिमाण निश्चित करके ही याचना करे, 5. अपने सहयोगी श्रमणों के लिए भी विचारपूर्वक परिमित परिमाण में ही वस्तु की याचना करे। कुछ आचार्यो ने अस्तेय-महाव्रत के पालन के लिए इन पांचो बातों को भी आवश्यक माना है - 1. हमेशा निर्दोष स्थान पर ही ठहरना चाहिए, 2. स्वामी की आज्ञा से ही आहार अथवा ठहरने का स्थान ग्रहण करना चाहिए, 3. ठहरने के लिए जितना स्थान ग्रहस्थ ने दिया है, उससे अधिक का उपयोग नहीं करना चाहिए, 4. गुरू की आज्ञा के पश्चात ही आहार आदि का उपभोग करना चाहिए, 5. यदि किसी स्थान पर पूर्व में कोई श्रमण ठहरा हो, तो उसकी आज्ञा को प्राप्त करके ही ठहरना चाहिए। अस्तेय महाव्रत के अपवाद अस्तेय-महाव्रत के सन्दर्भ में जिन अपवादों का उल्लेख है, उनका