________________ जैन धर्म एवं दर्शन-681 जैन- आचार मीमांसा-213 प्रसंग में गीतार्थ द्वारा आचरण सम्बन्धी शिथिलता को दबाने का ही प्रयास परिलक्षित होता है। वस्तुतः, जैन-परम्परा का बुनियादी दृष्टिकोण यह नही हो सकता की व्यक्ति अपनी कमजोरियों को दबाने के लिए असत्य का आश्रय ले। आचारांगसूत्र के उक्त सन्दर्भ में भी हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि ग्रन्थकार का मूलभूत दृष्टिकोण अहिंसा-महाव्रत की रक्षा है। उसमें भी प्रथमतः साधक को अपने आत्म बल को जाग्रत रखते हुए मोन रहने का ही निर्देश है। महावीर के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग है, जहाँ उन्होंने सम्भावित आपत्ति को सहन किया, लेकिन असत्य भाषण नही करते हुए- मौन रहकर ही अहिंसा-महाव्रत की मर्यादा का पालन किया। वस्तुतः, आगमिक-दृष्टिकोण यह है कि यथा सम्भव सत्य और अहिंसा-दोनों का ही पूर्णतया पालन किया जाए, लेकिन यदि साधक में इतना आत्मबल नहीं हैं कि वह मौन रहकर दोनों का ही पालन कर सके, तो ऐसी स्थिति में उनके लिए अपवाद-मार्ग का उल्लेख है। आचार्य शीलांक ने आचारांग के उक्त सन्दर्भ के समान ही अपनी सूत्रकृतांगवृत्ति में सत्य के अपवाद के सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्रवंचना की बुद्धि से रहित, मात्र संयम की रक्षा के लिए एवं कल्याण-भावना से बोला जाता है, वह सत्य दोषरूप नहीं है। अस्तेय-महाव्रत ... श्रमण का यह तीसरा महाव्रत है। सामान्यतया, भिक्षु को बिना स्वामी के आज्ञा के एक तिनका भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। भिक्षु अपनी जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए आवश्यक वस्तुओं को तभी ग्रहण कर सकता है, जबकि वे उनके स्वामी के द्वारा उसे दी गई हो। अदत्त वस्तु का न लेना ही श्रमण का अस्तेय-महाव्रत है। अस्तेय-महाव्रत का पालन भी श्रमण को मन, वचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदन की नव-कोटियों सहित करना चाहिए। श्रमण के लिए सामान्य नियम यही है कि अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति भिक्षा के द्वारा ही करे। न केवल नगर अथवा गाँव में वरन् जंगल में भी यदि उसे किसी वस्तु की आवश्यकता हो, तो बिना दिये स्वयं ही ग्रहण न करे। भोजन, वस्त्र, निवास, शय्या एवं औषध आदि सभी उनके स्वामी की अनुमति तथा उनके द्वारा प्रदत्त किए