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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-677 जैन- आचार मीमांसा-209 बैठना हो, तो अचित्त भूमि पर आसन आदि को यतना से प्रमार्जित करके बैठे। संयमी साधु सचित्त जल, वर्षा, ओले, बर्फ और ओस के जल को भी नहीं पीए, किन्तु जो तपा हुआ या सौवीर आदि सचित्त धोवन (पानी) को ही ग्रहण करे। किसी प्रकार की अग्रि को साधु उत्तेजित नहीं करे, छुए नहीं, सुलगाए नहीं तथा उसको बुझाए भी नहीं। इसी प्रकार, साधु किसी प्रकार की हवा नहीं करे तथा गरम पानी, दूध या आहार आदि को फूंक से ठंडा भी न करे। साधु तृणों, वृक्षों तथा उनके फल, फूल, पत्ते आदि को तोड़े नहीं, काटे नहीं, लता-कुंजों में बैठे नहीं। इसी प्रकार, साधु त्रास-प्राणियों में भी किसी जीव की मन, वचन और काय से हिंसा न करे। पूर्णरूपेण हिंसा से बचने के लिए साधु को यही निर्देश दिया गया है कि वह प्रत्येक कार्य का संपादन करते समय जाग्रत रहे, ताकि किसी प्रकार की हिंसा सम्भव न हो। ... अहिंसा-महाव्रत के सम्यक् पालन के लिए पांच भावनाओं का विधान है - 1. ईर्यासमिति - चलते-फिरते अथवा बैठते-उठते समय सावधानी रखना, 2. वचन-समिति-हिंसक अथवा किसी के मन को दुःखाने वाले वचन नहीं बोलना, 3. मन-समिति -मन में हिंसक-विचारों को स्थान नहीं देना, 4. एषणा-समिति - अदीन होकर ऐसा निर्दोष आहार प्राप्त करने का प्रयास करना, जिसमें श्रमण के लिए कोई हिंसा न की गई हो, 5. निक्षेपणा-समिति - साधु-जीवन के पात्रादि उपकरणों को सावधानीपूर्वक प्रमार्जन करके उपयोग में लेना अथवा उन्हें रखना और उठाना। अहिंसा महाव्रत के अपवाद ..सामान्यतया, अहिंसा-महाव्रत के सन्दर्भ में मूल-आगमों में अधिक अपवादों का कंथन नहीं है। मूल-आगमों में अहिंसाव्रत सम्बन्धी जो अपवाद हैं, उनमें त्रस जीवों की हिंसा के संदर्भ में कोई अपवाद नहीं है, केवल वनस्पति एवं जल आदि को परिस्थितिवश छूने अथवा आवागमन की स्थिति में उनकी होने वाली हिंसा के अपवादों का उल्लेख है। यद्यपि निशीथचूर्णि आदि परवर्ती ग्रन्थों में मुनिसंघ या साध्वी-संघ के रक्षणार्थ सिंह आदि हिंसक-प्राणियों एवं दुराचारी मुनष्यों की हिंसा करने सम्बन्धी
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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