________________ जैन धर्म एवं दर्शन-678 जैन- आचार मीमांसा-210 अपवादों का भी उल्लेख है। वस्तुतः परवर्ती-साहित्य में जिन अधिक अपवादों का उल्लेख है, उनके पीछे संघ (समुदाय) की रक्षा का प्रश्न जुड़ा हुआ है। इसी आधार पर धर्म-प्रभावना के निमित्त होने वाली जल, वनस्पति एवं पृथ्वी सम्बन्धी हिंसा को भी स्वीकृति प्रदान कर दी गई। सत्य-महाव्रत असत्य का सम्पूर्ण त्याग श्रमण का दूसरा महाव्रत है। श्रमण मन, वचन एवं काय तथा कृत-कारित-अनुमोदन की नवकोटियों सहित असत्य से विरत होन की प्रतिज्ञा करता है। श्रमण को मन, वचन और काय - तीनों से सत्य पर आरूढ़ होना चाहिए। मन, वचन और काय में एकरूपता का अभाव ही मृषावाद है। इसके विपरीत, मन, वचन और काय की एकरूपता ही सत्य-महाव्रत का पालन है। सत्य-महाव्रत के संदर्भ में वचन की सत्यता पर भी अधिक बल दिया गया है। साधारण रूप में सत्य-महाव्रत से असत्य भाषण का वर्जन समझा जाता है। जैन-आगमों में असत्य के चार प्रकार कहे गए हैं - 1. होते हुए नहीं कहना, 2. नहीं होते हुए उसका अस्तितव बताना, 3. वस्तु कुछ है और उसे कुछ और बताना, 4. हिंसाकारी, पापकारी और अप्रिय वचन बोलना। उपर्युक्त चारों प्रकार का असत्य भाषण श्रमण के लिए वर्जित है। श्रमण साधक को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, इसका विस्तृत विवेचन दशवैकालिकसूत्र के सुवाक्यशुद्धि नामक अध्ययन में है। जैन-आगमों के अनुसार, भाषा चार प्रकार की होती है - 1. सत्य, 2. असत्य, 3. मिश्र और 4. व्यावहारिक / इनमें असत्य और मिश्र भाषा का व्यवहार श्रमण के लिए वर्जित है। इतना ही नही, सत्य और व्यावहारिक भाषा भी यदि पाप और हिंसा की संभावना से युक्त है, तो उसका व्यवहार भी श्रमण के लिए वर्जित है। श्रमण केवल अहिंसक एवं निर्दोष सत्य तथा व्यावहारिक-भाषा बोल सकता है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि प्रज्ञावान् भिक्षु अवक्तव्य (न बोलने योग्य) सत्य भाषा भी न बोले। इसी प्रकार, वह भाषा जो थोड़ी सत्य और थोड़ी असत्य (नरो वा कुंजरो वा) है, ऐसी मिश्र भाषा का व्यवहार भी वाकसंयमी साधु न करे। बुद्धिमान भिक्षु केवल असत्य-अमृषा (व्यावहारिक) भाषा तथा सत्य भाषा को भी पापरहित,