________________ जैन धर्म एवं दर्शन-676 जैन- आचार मीमांसा -208 परिस्थितियों में ही इन नियमों के परिपालन में अपवादमार्ग का आश्रय ले सकते हैं। समान्यतया, इन पंच महाव्रतों का पालन मन, वचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदन इन 3x3 नव कोटियों सहित करना होता अहिंसा-महाव्रत श्रमण को सर्वप्रथम स्व और पर की हिंसा से विरत होना होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का विनाश करना स्व-हिंसा है। दूसरे प्राणियों को पीड़ा एवं हानि पहँचाना पर-हिंसा है। श्रमण का पहला कर्त्तव्य स्व-हिंसा से विरत होना है, क्योंकि स्व-हिंसा से विरत हुए बिना पर की हिंसा से बचा नही जा सकता। श्रमण-साधक को जगत् के सभी त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा से भी विरत होना होता है। दशवैकालिक़सूत्र में कहा गया है कि भिक्षुजगत् में जितने भी प्राणी हैं, उनकी हिंसा जानकर अथवा अनजाने में न करे, न कराए और न हिंसा करनेवाले का अनुमोदन ही करें। भिक्षु प्राणवध क्यों न करे, इसके प्रतिउत्तर में कहा गया है कि हिंसा से, दूसरे का घात करने के विचार से, न केवल दूसरे को पीड़ा पहुँचती है, वरन् उससे आत्म-गुणों का भी घात होता है और आत्मा कर्म-मल से मलिन होती है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में हिंसा का एक नाम गुणविराधिका भी वर्णित है। अंहिसा-महाव्रत के परिपालन में श्रमण-जीवन और गृहस्थ-जीवन में प्रमुख रूप से अंतर यह है कि जहाँ गृहस्थ-साधक केवल त्रस-प्राणियों की संकल्पी हिंसा का त्याग करता है, वहाँ श्रमण साधक त्रस और स्थावर, सभी प्राणियों की सभी प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है। हिंसा के चार प्रकार है - 1. आरम्भी, 2. उद्योगी, 3. विरोधी और 4. संकल्पी, में से गृहस्थ केवल संकल्पी-हिंसा का त्यागी होता है और श्रमण चारों ही प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है। श्रमण-जीवन में अहिंसा-महाव्रत का परिपालन किस प्रकार होना चाहिए, इसकी संक्षिप्त रूपरेखा दशवैकालिकसूत्र में मिलती है। उसमें कहा गया है कि समाधिवंत संयमी साधु तीन करण एवं तीन योग से पृथ्वी आदि सचित्त मिट्टी के ढेले आदि न तोड़े, न उन्हें पीसे, सजीव पृथ्वी पर एवं सचित धूलि से भरे हुए आसन पर नहीं बैठे, यदि उसे