________________ जैन धर्म एवं दर्शन-675 जैन- आचार मीमांसा -207 आवश्यक कृत्य, 22. केशलोच, 23. नग्रता, 24. अस्नान, 25. भूशयन, 26. अदन्तधावन, 27. खड़े रहकर भोजन ग्रहण करना और 28. एकभुक्ति-एक समय भोजन करना। श्वेताम्बर-परम्परा में श्रमण के 28 मूलगुण माने गए हैं। श्वेताम्बर-परम्परा का वर्गीकरण दिगम्बर-परम्परा के वर्गीकरण से थोड़ा भिन्न है। श्वेताम्बर-ग्रन्थों के आधार पर श्रमण के 27 मूलगुण इस प्रकार हैं - 1-5. पंचमहाव्रत, 6. अरात्रिभोजन, 7-11. पांचों इन्द्रियों का संयम, 12. आन्तरिक-पवित्रता, 13. भिक्षु-उपाधि की पवित्रता, 14. क्षमा, 15. अनासक्ति, 16. मन की सत्यता, 17. वचन की सत्यता, 18. काया की सत्यता, 19-24. छह प्रकार के प्राणियों का संयम, अर्थात उनकी हिंसा न करना, 25. तीन गुप्ति, 26. सहनशीलता, 27. संलेखना। समवायांग की सूची इससे किंचित् भिन्न है। समवायांग के अनुसार 27 गुण इस प्रकार है - 1-5. पंच महाव्रत, 6-10. पंच इन्द्रियों का संयम, 11-15. चार कषायों का परित्याग, 16. भावसत्य, 17. करणसत्य, 18. योगसत्य, 19. क्षमा, 20. विरागता, 21-24. मन, वचन और काया का निरोध, 25. ज्ञान, दर्शन और चारित्र से संपन्नता, 26. कष्ट-सहिष्णुता और 27. मरणान्त कष्ट का सहन करना। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जहाँ दिगम्बर-परम्परा में 28 मूलगुणों में आचरणं के बाह्य तथ्यों पर अधिक बल दिया गया है, वहाँ श्वेताम्बर में आन्तरिक-विशुद्धि को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। मनोशुद्धि मूलतः दोनों परम्पराओं में स्वीकृत है। पंच महाव्रत पंच महाव्रत श्रमण-जीवन के मूलभूत गुणों में माने गए हैं। जैन-परम्परा में पंच महाव्रत ये हैं - 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह। ये पांचों व्रत गृहस्थ और श्रमण - दोनों के लिए विहित हैं, अन्तर यह है कि श्रमण-जीवन में उनका पालन पूर्ण रूप से करना होता है, इसलिए महाव्रत कहे जाते हैं। गृहस्थ जीवन में उनका पालन आंशिक रूप से होता है, इसलिए गृहस्थ-जीवन के संदर्भ में अणुव्रत कहे जाते है। श्रमण इन पांचों महाव्रतों का पालन पूर्ण रूप से करता है। सामान्य स्थिति में इनके परिपालन के लिए अपवाद नहीं माने गए हैं। श्रमण केवल विशेष