________________ जैन धर्म एवं दर्शन-482 जैन- आचार मीमांसा-14 . जैन-विचारकों ने जीवन के इन तीनों पक्षों को अलग-अलग देखा तो सही, लेकिन उन्हें अलग-अलग किया नहीं। यही कारण है कि जैन-दर्शन ने तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन पर विचार तो किया, लेकिन उन्हें एक-दूसरे पृथक नहीं रखा। सभी एक-दूसरे में इतने घुले-मिले है कि इन्हें एक-दूसरे से पृथक करना सम्भव ही नहीं है। न तो जैन-आचारमीमांसा को तत्त्वमीमांसा और धर्ममीमांसा से पृथक किया जा सकता है और न उनसे अलग कर उसे समझा ही जा सकता है। जैन-दर्शन का मुद्रालेख 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः मानवीय-चेतना के अनुभूत्यात्मक, ज्ञानात्मक और क्रियात्मक (संकल्पात्मक) - तीनों पक्षों को समन्वित रूप से प्रस्तुत करता है। यह दर्शन, ज्ञान और चारित्र क्रमशः धर्म, तत्त्वज्ञान और आचरण के प्रतीक है। इस प्रकार, जहा मैकेंजी आदि पाश्चात्य विचारक नैतिकता में आचरणात्मक-पक्ष को ही सम्मिलित करते है, वहाँ जैन विचारक नैतिकता में जीवन के तीनों पक्ष–अनुभूति, ज्ञान और क्रिया को सम्मिलित करते हैं। यही कारण है कि जैन आचारदर्शन का अध्ययन करते समय उसकी तत्तमीमांसा और धर्ममीमांसा को छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि उसकी तात्त्विक-मान्यता 'अनन्तधर्मात्मक वस्तु' के आधार पर ही अनेकान्तवाद और नयवाद के सिद्धान्त खडे है और अनेकान्तवाद को ही आचारदर्शन के क्षेत्र में वैचारिक–अंहिसा कहा गया है। दूसरी ओर, अंहिसा ने जब व्यवहार के क्षेत्र को छोड़ विचार के क्षेत्र में प्रवेश किया, तो वह अनेकान्त बन गई। अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से नैतिक-सापेक्षता का प्रश्न जुडा हुआ है। इस प्रकार, तत्त्व दर्शन और आचार दर्शन एक-दूसरे से अलग नही रह जाते। जहाँ तक धर्मदर्शन और आचारदर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, जैन परम्परा में पूरी तरह एक-दूसरे से मिले हुए है। धर्म ही नीति है और नीति ही धर्म है। दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गये है। यदि जैन-परम्परा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र समवेत रूप में मोक्ष-मार्ग है, तो फिर तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन एक-दूसरे से सम्पूर्णतः पृथक होकर नही रह सकते। तत्त्वदर्शन आचारशास्त्र का आधार है।