________________ जैन धर्म एवं दर्शन-481 जैन- आचार मीमांसा-13 तब वह दर्शन कहलाती है। यद्यपि आचारशास्त्र के अध्ययन का क्षेत्र भी सीमित है, तथापि उसकी अध्ययनदृष्टि व्यापक है और इसी के आधार पर वह दर्शन का अंग है। मानवीय-चेतना के तीन पक्ष है - (1) ज्ञानात्मक, (2) अनुभूत्यात्मक और (3) क्रियात्मक / अतः, दार्शनिक-अध्ययन के भी तीन विभाग किए गए, जो क्रमशः - (1) तत्त्वदर्शन, (2) धर्मदर्शन और (3) आचारदर्शन कहे जाते है। इसप्रकार, तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन की विषयवस्तु भिन्न नहीं है, मात्र अध्ययन के पक्षों की भिन्नता है। मैकेंजी कहते हैं कि नीतिशास्त्र जीवन के सम्पूर्ण अनुभव पर संकल्प या क्रियाशीलता के दृष्टिकोण से विचार करता है। वह मनुष्य को कर्ता, यानी किसी साध्य का अनुसरण करने वाले प्राणी के रूप में देखता है और ज्ञाता या भोक्ता के रूप में केवल परोक्षतः देखता है, लेकिन वह मनुष्य की सम्पूर्ण क्रियाशीलता का, जिस शुभ को पाने के लिए वह प्रयत्नशील है, उसके सम्पूर्ण स्वरूप का तथा इस प्रयत्न में वह जो कुछ करता है, उसके पूरे अर्थ का विचार करता है। चेतना के विविध पक्षों की विभिन्नता के आधार पर तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन में एक सीमा के बाद भेद नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जीवन और जगत् एक ऐसी संगति है, जिसमें सभी तथ्य परस्पर में इतने सापेक्ष हैं कि उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता। : विचारपूर्वक देखा जाए, तो जैन, दर्शन भी तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन के मध्य विभाजक-रेखा नही खींचता है। लगभग सभी भारतीय-दर्शनों की यह प्रकृति है कि वे आचारशास्त्र को दर्शन से पृथक नहीं करते हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. रामानन्द तिवारी लिखते हैं कि न वेदान्त में और न किसी अन्य भारतीय-दर्शन में आचारशास्त्र को दर्शन से पृथक किया गया है। दर्शन मनुष्य के जीवन और ज्ञान के चरम सत्य की खोज का प्रतीक है, सत्य एक और अखण्ड है। अतः, दर्शन के किसी पक्ष की मीमांसा, उसे अन्य पक्षों के पृथक् करके समुचित रीति से नहीं की जा सकती है। वस्तु, वेदान्त और अन्य भारतीय-दर्शनों में यह आचारदर्शन सम्बन्धी चिन्तन या सामान्य दार्शनिक-चिन्तन के अन्तर्गत ही है, उससे पृथक् नही।