________________ जैन धर्म एवं दर्शन-480 जैन- आचार मीमांसा-12 फिर एक व्यक्ति दूसरे के आचरण के सम्बन्ध में कोई भी नैतिक-निर्णय नहीं दे सकेगा, क्योंकि कर्ता का प्रयोजन, जो कि एक वैयक्तिक-तथ्य है, दूसरे के द्वारा जाना नहीं जा सकता। दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में नैतिक-निर्णय तो कार्य के बाह्य-परिणाम के आधार पर ही दिया जा सकता है। लोग बाह्य-रूप से अनैतिक-आचरण करते हुए भी. यह कहकर कि उसमें हमारा प्रयोजन शुभ था, स्वयं के नैतिक या धार्मिक होने का दावा कर सकते हैं। महावीर के युग में भी बाह्य-रूप में अनैतिक-आचरण करते हुए अनेक लोग धार्मिक या नैतिक होने का दावा करते थे। इसी कारण, महावीर को यह कहना पड़ा कि 'मन से सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें करना क्या संयमी पुरूषों का लक्षण है ?' इस प्रकार, एकांगी-हेतुवाद का सबसे बड़ा दोष यह है कि उसमें नैतिकता का दम्भ पनपता है। दूसरे, एकान्त-हेतुवाद में मन और कर्म की एकरूपता को कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। एकांगी-हेतुवाद यह मान लेता है कि कार्य के मानसिक-पक्ष और परिणामात्मक-पक्ष में एकरूपता की आवश्यकता नहीं है, दोनों स्वतंत्र हैं, उनमें एक प्रकार का द्वैत है, जबकि सच्चे नैतिक-जीवन का अर्थ है-मनसा-वाचा-कर्मणा व्यवहार की एकरूपता। नैतिक-जीवन की पूर्णता तो मन और कर्म के पूर्ण सामंजस्य में है। यह ठीक है कि कभी-कभी कर्ता के हेतु और उसके परिणाम में एकरूपता नहीं रह पाती है, लेकिन वह अपवादात्मक स्थिति ही है, इसके आधार पर सामान्य नियम की प्रतिष्ठापना नहीं हो सकती। सामान्य मान्यता तो यह है कि बाह्य-आचरण कर्ता की मनोदशाओं का प्रतिबिम्ब है। अतः नैतिक निर्णय का विषय एकान्ततः न तो अभिसंधी या मानसिक प्रयोजन (Intention) होता है और न कर्म का बाह्य परिणाम या कर्मफल होता है। ज्ञान दर्शन और चारित्र की जैन आचारदर्शन में तात्त्विक एकरूपता पाश्चात्य आचार-दर्शन में नैतिकता के लिए तीन तात्विक आधारों को आवश्यक माना गया है। मानवीय-अनुभव के विषयों के एक सीमित भाग के व्यवस्थित अध्ययन को विज्ञान कहते है, लेकिन जब अध्ययन की दृष्टि व्यापक होती है और उन अनुभवों की आधारभूत मान्यताओं तक जाती है,