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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-479 जैन- आचार मीमांसा-11 है। उसके अनुसार, 'यदि कार्य किसी शुद्ध प्रयोजन से किया गया है, तो वह शुभ ही होगा, चाहे उससे किसी दूसरे को दुःख ही क्यों न पहुँचा हो और यदि अशुभ प्रयोजन से किया गया है, तो अशुभ ही होगा, चाहे परिणाम के रूप में उससे दूसरों को सुख हुआ हो। श्री सुशील कुमार मैत्र कहते हैं, शुभाशुभ कर्म का विनिश्चय बाह्य-परिणामों पर नहीं, वरन् कर्ता के आत्मगत प्रयोजन की प्रकृति के आधार पर करना चाहिए। * तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हेतुवाद के विषय में जैन, बौद्ध और हिन्दूधर्म के आचारदर्शनों में अद्भुत साम्य दिखाई देता है। इस सम्बन्ध में धम्मपद, गीता तथा पुरूषार्थसिद्ध्युपाय के कथन द्रष्टव्य हैं। आचार्य अमृतचन्द कहते हैं, “रागादि से रहित अप्रमादयुक्त आचरण करते हुए यदि प्राणघात हो जाए, तो वह हिंसा नहीं है।" धम्मपद में कहा है, "माता, पिता, दो क्षत्रिय राजा एवं अनुचरों सहित राष्ट्र का हनन करने पर भी वीततृष्ण ब्राह्मण (ज्ञानी) निष्पाप होता है।" गीता कहती है, "जिसमें आसक्ति और कर्तृत्वभाव नहीं है, वह इस समग्र लोक को मारकर भी न तो मारता है और न बन्धन में आता है। वस्तुतः, ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है।" यद्यपि भारतीय आचारदर्शनों में इतनी वैचारिक एकरूपता है, तथापि गीता और जैनाचारदर्शन में एक अन्तर यह है कि गीता के अनुसार स्थितप्रज्ञ अवस्था में रहकर हिंसा की जा सकती है, जबकि जैन-विचारणा कहती है कि इस अवस्था में रहकर हिंसा की नहीं जा सकती, मात्र हो जाती है। प्रश्न उठता है कि यदि जैन-चिन्तन को प्रयोजन या हेतुवाद स्वीकार्य है, तो फिर उसे हेतुवाद के समर्थक बौद्धदर्शन की आलोचना करने का क्या अधिकार है? यदि जैन-चिन्तन को एकांततः हेतुवाद स्वीकार्य होता, तो वह बौद्ध-दार्शनिकों की आलोचना नहीं करता। जैन-विचारणा का विरोध तो उस एकांगी हेतुवाद से है, जिसमें बाह्य व्यवहार की अवहेलना की जाती है। एकांगी हेतुवाद में जैन-विचारणा ने सबसे बड़ा खतरा यह देखा कि वह नैतिक मूल्यांकन की वस्तुनिष्ठ कसौटी को समाप्त कर देता है। फलस्वरूप, हमारे पास दूसरे के कार्यो के नैतिक मूल्यांकन की कोई कसौटी ही नही रह जाती। यदि अभिसन्धि या कर्ता का प्रयोजन ही हमारे कर्मो की शुभाशुभता का निर्णायक है, तो
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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