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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-478 जैन - आचार मीमांसा-10 निहित नहीं है कि उससे दूसरों को सुख होता है और स्वयं को कष्ट होता है। इसी प्रकार, कार्य का अशुभत्व इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसकी फल-निष्पत्ति के रूप में दूसरों को दुःख होता है और स्वयं को सुख होता है, क्योंकि यदि शुभ-अशुभ का अर्थ दूसरों का सुख-दुःख हो, तो हमें जड़ पदार्थ और वीतराग सन्त को भी बन्धन में मानना पड़ेगा, अर्थात् उन्हें नैतिकता की परिसीमा में मानना होगा, क्योंकि उनके क्रियाकलाप भी किसी के सुख और दुःख का कारण तो बनते ही हैं और ऐसी दशा में उन्हें भी शुभाशुभ का बन्ध होगा ही। दूसरे, यदि शुभ का अर्थ स्वयं का दुःख और अशुभ का अर्थ स्वयं का सुख हो, तो वीतराग तपस्या के द्वारा शुभ का बन्ध करेगा और ज्ञानी आत्मसंतोष की अनुभूति करते हुए भी अशुभ या पाप का बन्ध करेगा, अतः सिद्ध यह होता है कि स्वयं का अथवा दूसरों का सुख अथवा दुःख रूप परिणाम शुभशुभता का निर्णायक नहीं हो सकता, वरन् उनके पीछे निहित कर्ता का शुभाशुभ प्रयोजन ही किसी कार्य के शुभत्व अथवा अशुभत्व का निश्चय करता है। आचार्य विद्यानन्दि फलवाद या कर्म के बाह्य-परिणाम के आधार पर नैतिक मूल्यांकन करने की वस्तुनिष्ठ पद्धति का विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि किसी दूसरे के हिताहित के आधार पर पुण्य-पाप का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ क्रियाशीलताएँ तो पुण्य-पाप के इस माप से नीचे हैं; जैसे जड़ पदार्थ, और कुछ पुण्य-पाप के इस माप के ऊपर हैं, जैसे अर्हत् / पुण्य-पाप के क्षेत्र में क्रियाओं के आधार पर वे ही व्यक्ति आते हैं, जो वासनाओं से युक्त हैं। किसी भी सुख या दुःख देने मात्र से कोई कार्य पुण्य-पाप नहीं होता, वरन् उस कार्य के पीछे जो वासना है, वही कार्य के शुभाशुभ होने का कारण है। वीतराग के कारण किसी को सुख या दुःख हो सकता है, लेकिन उसके पीछे वासना या प्रयोजन न होने से उसे पुण्य-पाप का बन्ध नहीं होता। निष्कर्ष यह है कि जैन-दृष्टि के अनुसार भी कर्ता का प्रयोजन या अभिसन्धि ही शुभाशुभत्व की अनिवार्य शर्त है, न कि मात्र सुख-दुःख के परिणाम। . श्री युदनाथ सिन्हा भी यही मानते हैं कि जैन-आचारदर्शन कार्य के परिणाम (फल) से व्यतिरिक्त उसके हेतु की शुद्धता पर ही बल देता
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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