SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-477 जैन- आचार मीमांसा-9 जबकि तार्किक निर्णय ज्ञानात्मक निर्णय है। नैतिक-निर्णय में व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रधान होता है, वह अपने दृष्टिकोण के आधार पर ही किसी कर्म के अच्छे या बुरे होने का निर्णय लेता है। इस सम्बन्ध में विद्वानों के दो वर्ग है। एक वर्ग कर्म के हेतु (प्रयोजन) को नैतिक-निर्णय का आधार मानता है, तो दूसरा वर्ग कर्म के परिणाम को ही उसके नैतिक होने का आधार मानता है। पाश्चात्य परम्परा में बटलर कहते हैं कि किसी कार्य की अच्छाई या बुराई बहुत कुछ उस हेतु पर निर्भर होती है, जिससे वह किया जाता है। उसके विपरीत फलवाद की मान्यता है कि किसी कर्म की नैतिकता उस कर्म के परिणाम पर निर्भर करती है। इस सिद्धान्त के अनुसार नैतिकता का अर्थ ऐसे परिणामों को उत्पन्न करता है, जिससे जनसाधारण के कल्याण में अभिवृद्धि हो। एक पक्ष कर्म के प्रेरक (Motive) को महत्व देता है, तो दूसरा पक्ष कर्म के परिणाम (Result) को। जैन-दर्शन में कर्म के परिणाम और कर्म के हेतु दोनों का ही विचार हुआ है। किन्तु उसकी दृष्टि एकांगी नहीं है। किसी भी कर्म की नैतिकता या अनैतिकता का निर्णय करने के लिए हमें उस कर्म के हेतु या प्रेरक और कर्म के परिणाम दोनों का ही विचार करना होगा। : जैन-चिन्तकों द्वारा हेतुवाद का फलवाद से भी अधिक समर्थन किया गया है, जिसे अनेक तथ्यों से परिपुष्ट किया जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में, आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की वृत्ति में तथा आचार्य विद्यानन्दि की अष्टसहस्त्री में फलवाद का खण्डन और हेतुवाद का मण्डन पाया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि (हिंसा का) अध्यवसाय, अर्थात् मानसिक हेतु ही बन्धन का कारण है, चाहे (बाह्य रूप में) हिंसा हुई हो या न हुई हो। वस्तु (घटना) नहीं, वरन् संकल्प ही बन्धन का कारण है। दूसरे शब्दों में, बाह्य-रूप में घटित कर्म-परिणाम नैतिक या अनैतिक नहीं होते हैं, वरन् व्यक्ति का कर्म-संकल्प या हेतु ही नैतिक या अनैतिक होता है। इसी सन्दर्भ में, जैन आचार्य समन्तभद्र और विद्यानन्दि के दृष्टिकोणों का उल्लेख प्रो. सुशीलकुमार मैत्रा और यदुनाथ सिन्हा ने अपने ग्रन्थों में किया है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि कार्य का शुभत्व केवल इस तथ्य में
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy