________________ जैन धर्म एवं दर्शन-476 जैन- आचार मीमांसा-8 पर ही है, साधन की अपेक्षा से तो वे भी सापेक्ष हो सकते है। - जो नैतिक-विचारधाराएँ मात्र निरपेक्षतावाद को स्वीकार करती हैं, वे यथार्थ की भूमिका को भूलकर मात्र आदर्श की ओर देखती हैं। वे नैतिक-आदर्श को तो प्रस्तुत कर देती हैं, किन्तु उस मार्ग का निर्धारण करने में सफल नहीं हो पातीं, जो उस साध्य एवं आदर्श तक ले जाता है, क्योंकि नैतिक-आचारण एवं व्यवहार तो परिस्थितिसापेक्ष होता है। नैतिकता एक लक्ष्योन्मुख गति है, लेकिन यदि उस गति में व्यक्ति की दृष्टि मात्र उस यथार्थ भूमिका तक ही, जिसमें वह खड़ा है, सीमित है, तो वह कभी भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, वह पथभ्रष्ट हो सकता है। दूसरी ओर, वह व्यक्ति, जो गन्तव्य की ओर तो देख रहा है, किन्तु उस मार्ग को नहीं देख रहा है, जिसमें वह गति कर रहा है, वह मार्ग में वह ठोकर खाता है और कण्टकों से अपने को पद-विद्ध कर लेता है। जिस प्रकार चलने के उपक्रम में हमारा काम न तो मात्र सामने देखने से चलता है और न मात्र नीचे देखने से ही, उसी प्रकार नैतिक-प्रगति में हमारा काम न तो मात्र निरपेक्ष-दृष्टि से चलता है और न मात्र सापेक्ष-दृष्टि से चलता है। निरपेक्षतावाद उस स्थिति की उपेक्षा कर देता है, जिसमें व्यक्ति खड़ा है, जबकि सापेक्षतावाद उस आदर्श या साध्य की उपेक्षा करता है, जो कि गतव्य है। इसी प्रकार, निरपेक्षतावाद सामाजिक-नीति की उपेक्षा कर मात्र वैयक्तिक-नीति पर बल देता है, किन्तु व्यक्ति समाजनिरपेक्ष नहीं हो सकता / पुनः, निरपेक्षतावादी-नीति में साध्य की सिद्धि ही प्रमुख होती है, किन्तु वह साधन उपेक्षित बना रहता है, जिसके बिना साध्य की सिद्धि सम्भव नहीं है। अतः, सम्यक् नैतिक-जीवन के लिए नीति में सापेक्ष और निरपेक्ष-दोनों तत्त्वों की अवधारणा को स्वीकार करना आवश्यक है। नैतिकनिर्णय का स्वरूप एवं विषय-प्रेरक या परिणाम (हेतु या फल) सामान्यतया सभी लोग दूसरो के व्यवहारों की प्रंशसा या निंदा करते है, और उसी के आधार पर किसी के आचरण को अच्छा या बुरा कहते है- उदाहरार्थ - अंहिसा शुभ है, और हिसा अशुभ है। जब हम किसी कर्म के गुण-दोष या शुभत्व-अशुभत्व का विचार करते है, तो हमारा निर्णय-नैतिक निर्णय कहा जाता है, नैतिक निर्णय मूल्यात्मक निर्णय है,