________________ जैन धर्म एवं दर्शन-475 जैन- आचार मीमांसा-7 संकल्प का क्षेत्र, प्रज्ञा का क्षेत्र, एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ चेतना या प्रज्ञा ही सर्वोच्य शासक है। अन्तस् में व्यक्ति स्वयं अपना शासक है, वहाँ परिस्थितियों या समाज का शासन नही है, अतः इस क्षेत्र में नीति की निरपेक्षता सम्भव है। अनासक्त-कर्म का दर्शन इसी सिद्धान्त पर स्थित है, क्योंकि अनेक स्थितियों में कर्म का बाह्यात्मक रूप कर्ता के मनोभावों का यथार्थ परिचायक नहीं होता, अतः यह माना जा सकता है कि मनोवृत्यात्मक या भावनात्मक-नीति निरपेक्ष होगी, किन्तु आचरणात्मक या व्यवहारात्मक-नीति सापेक्ष होगी। यही कारण है कि जैन-दर्शन में नैश्चयिक-नैतिकता को निरपेक्ष और व्यावहारिक-नैतिकता को सापेक्ष माना गया है। (2) दूसरे, साध्यात्मक-नीति या नैतिक-आदर्श निरपेक्ष होता है, किन्तु साधनपरक नीति सापेक्ष होती है। दूसरे शब्दों में, जो सर्वोच्च शुभ है, वह निरपेक्ष है, किन्तु उस सर्वोच्य शुभ की प्राप्ति के जो नियम या मार्ग है, वे सापेक्ष हैं, क्योंकि एक ही साध्य की प्राप्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। पुनः वैयक्तिक-रूचियों, क्षमताओं और स्थितियों की भिन्नता के आधार पर सभी के लिए समान नियमों का प्रतिपादन सम्भव नहीं है, अतः साध्यपरक-नीति को या नैतिक-साध्य को निरपेक्ष और साधनपरक-नीति को सापेक्ष मानना ही एक यथार्थ दृष्टिकोण हो सकता है। (3) तीसरे, नैतिक-नियमों में कुछ नियम मौलिक होते हैं और कुछ नियम उन मौलिक नियमों के सहायक होते हैं; उदाहरणार्थ, भारतीय-परम्परा में सामान्य धर्म और विशेष धर्म (वर्णाश्रम-धर्म) ऐसा वर्गीकरण हमें मिलता है। जैन-परम्परा में भी एक ऐसा ही वर्गीकरण मूलगुण और उत्तरगुण के नाम से है। यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि साधारणतया सामान्य या मूलभूत नियम ही निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय माने जा सकते है, विशेष नियम तो सापेक्ष एवं परिवर्तनीय ही होते है। यद्यपि हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि अनेक स्थितियों में सामान्य नियमों के भी अपवाद हो सकते हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर भी यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपवाद को कभी भी नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता। यहाँ एक बात जो विचारणीय है, वह यह कि मौलिक नियमों की निरपेक्षता भी उनकी अपरिवर्तनशीलता या उनके स्थायित्व के आधार