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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-633 जैन- आचार मीमांसा-165 है, यद्यपि इस क्रम को भी एकान्तिक-रूप में स्वीकार करना उसकी स्याद्वाद की धारणा का अतिक्रमण ही होगा, क्योंकि जहाँ आचरण के सम्यक् होने के लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आचरण का सम्यक् होना आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार जब तक तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ-चार कषायें समाप्त नहीं होती, तब तक सम्यक् दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त नहीं होता। आचार्य शंकर ने भी ज्ञान की प्राप्ति के पूर्व वैराग्य का होना आवश्यक माना है। इस प्रकार, सदाचरण और संयम के तत्त्व सम्यक् दर्शन और ज्ञान की उपलब्धि के पूर्ववर्ती भी सिद्ध होते हैं। दूसरे, इस क्रम या पूर्वापरता के आधार पर भी साधन-त्रय में किसी एक को श्रेष्ठ मानना और दूसरे को गौण मानना जैनदर्शन को स्वीकृत नहीं है। वस्तुतः, साधन-त्रय मानवीय-चेतना के तीन पक्षों के रूप में ही साधना-मार्ग का निर्माण करते हैं। चेतना के इन तीन पक्षों में जैसी पारस्परिक-प्रभावकता और अवियोज्य-सम्बन्ध रहा है, वैसी ही पारस्परिकप्रभावकता और अवियोज्य-सम्बन्ध इन तीनों पक्षों में भी है। ज्ञान और क्रिया के सहयोग से मुक्ति-साधना-मार्ग में ज्ञान और क्रिया (विहित आचरण) के श्रेष्ठत्व को लेकर विवाद चला आ रहा है। वैदिक-युग में जहाँ विहित आचरण की प्रधानता रही है, वहाँ औपनिषदिक-युग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीय-चिन्तकों के समक्ष प्राचीन समय से ही यह समस्या रही है कि ज्ञान और क्रिया के बीच साधना का यर्थाथ तत्त्व क्या है ? जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही साधनामार्ग में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण-परम्परा देहदण्डन-परक तप-साधना में और वैदिक-परम्परा यज्ञयागपरकक्रियाकाण्डों में ही साधना की इतिश्री मानकर साधना के मात्र आचरणात्मक-पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान से समन्वित करने का प्रयास किया था। महावीर और उनके बाद जैन-विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण-दोनों से समन्वित साधनापथ का उपदेश दिया। जैन-विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से। ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं सांख्य· परम्पराओं की समीक्षा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया कि कुछ विचारक मानते हैं कि पाप का त्याग किए बिना ही, मात्र आर्यतत्त्व (यथार्थता) को जानकर ही, आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है, लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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