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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-634 जैन- आचार मीमांसा-166 को आश्वासन देते हैं। 40 सूत्रकृतांग में कहा है कि मनुष्य, चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो, अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो, यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है, तो वह अपने कर्मों के कारण दुःखी ही होगा। अनेक भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता / मन्त्रादि विद्या भी उसे कैसे बचा सकती है ? असद् आचरण में अनुरक्त अपने-आप को पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही हैं / आवश्यकनियुक्ति में ज्ञान और चारित्र के पारस्परिकसम्बन्ध का विवेचन विस्तृत रूप में है। उसके कुछ अंश इस समस्या का हल खोजने में हमारे सहायक हो सकेंगे। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार-समुद्र से पार नहीं होते। मात्र शास्त्रीय ज्ञान से, बिना आचरण के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुंचा सकता, वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप-संयमरूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। मात्र जान लेने से कार्य-सिद्धि नहीं होती। तैरना जानते हुए भी कोई कायचेष्टा नहीं करे, तो डूब जाता है, वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह डूब जाता है। जैसे चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भारवाहक ही बना रहता है, वैसे ही आचरण से हीन ज्ञानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है, इससे उसे कोई लाभ नहीं होता। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक-सम्बन्ध को लोकप्रसिद्ध अंध-पंगु-न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यक् मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है, वैसे ही आचरणविहीन ज्ञान पंगु के समान है और ज्ञानचक्षुविहीन आचरण अन्धे के समान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आचरण-दोनों निरर्थक हैं और संसाररूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ हैं। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेला अन्धा, अकेला पंगु इच्छित साध्य तक नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है। भगवतीसूत्र में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है। महावीर ने साधक की दृष्टि से ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध की एक चतुर्भंगी का कथन इसी संदर्भ में किया है - 1. कुछ व्यक्ति ज्ञानसम्पन्न हैं, लेकिन चारित्र-सम्पन्न नहीं हैं।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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