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________________ जैन धर्म एवंदर्शन-632 जैन- आचार मीमांसा -164 चारित्र को ज्ञान के अन्य दो पक्षों के रूप में सिद्ध कर मात्र ज्ञान को ही मोक्ष का हेतु सिद्ध करते हैं। उनके दृष्टिकोण के अनुसार दर्शन और चारित्र भी ज्ञानात्मक है, ज्ञान की ही पर्यायें हैं। यद्यपि यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आचार्य मात्र ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष के सद्भाव की कल्पना करते हैं, फिर भी वे अन्तरंग-चारित्र की उपस्थिति से इनकार नहीं करते हैं। अन्तरंग-चारित्र तो कषाय आदि के क्षय के रूप में सभी साधकों में उपस्थित होता है। साधक और साध्य-विवचेन में हम देखते हैं कि साधक-आत्मा पारमार्थिक-दृष्टि से ज्ञानमय ही है और वही ज्ञानमय आत्मा उसका साध्य है। इस प्रकार, ज्ञानस्वभावमय आत्मा ही मोक्ष का उपादान-कारण है। क्योंकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और जो आत्मा है, वह ज्ञान है," अतः मोक्ष का हेतु ज्ञान ही सिद्ध होता है। इस प्रकार, जैन-आचार्यों ने साधन-त्रय में ज्ञान को अत्यधिक महत्व दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र का उपर्युक्त दृष्टिकोण तो जैन-दर्शन को शंकर के निकट खड़ा कर देता है, फिर भी यह मानना कि जैन-दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है, जैनविचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। यद्यपि जैन-साधना में ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति का प्राथमिक एवं अनिवार्य कारण है, फिर भी वह एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता / ज्ञानाभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान से भी मुक्ति सम्भव नहीं है। जैन-आचार्यों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र के आदर्शोन्मुख एवं सम्यक् होने के लिए ज्ञान महत्वपूर्ण तथ्य है, सम्यग्ज्ञान के अभाव में श्रद्धा अन्धश्रद्धा होगी और चारित्र या सदाचरण एक ऐसी कागजी-मुद्रा के समान होगा, जिसका चाहे बाह्य-मूल्य हो, लेकिन आन्तरिक-मूल्य शून्य ही है। आचार्य कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी-परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे भी स्पष्ट कहते हैं कि कोरे ज्ञान से निर्वाण नहीं होता, यदि श्रद्धा न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नहीं होता, यदि संयम (सदाचरण) न हो। जैन-दार्शनिक शंकर के समान न तो यह स्वीकार करते हैं कि मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृति भक्तिमार्ग के आचार्यों के समान यह स्वीकार करते हैं कि मात्र भक्ति से मुक्ति होती है। उन्हें मीमांसा-दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नहीं है कि मात्र कर्म से मुक्ति हो सकती है। वे तो श्रद्धासमन्वित ज्ञान और कर्म-दोनों से मुक्ति की सम्भावना स्वीकार करते हैं। . सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का पूर्वापर सम्बन्धं भी एकांतिक नहीं- जैन-विचारणा के अनुसार साधन-त्रय में एक क्रम तो माना गया
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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