________________ जैन धर्म एवं दर्शन-622 जैन- आचार मीमांसा-154 अवस्था में यदि आत्मा राग-द्वेष अथवा मोह से अभिभूत होता है, तो वह पुनः नये कर्म का संचय कर लेता है। इस प्रकार, यह परम्परा सतत् रूप से चलती रहती है। व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में यह नहीं है कि वह कर्म के विपाक के परिणामस्वरूप होने वाली अनुभूति से इंकार कर दे, अतः यह एक कठिन समस्या है कि कर्म के बंधन व विपाक की इस प्रक्रिया से मुक्ति कैसे हो। यदि कर्म के विपाक के फलस्वरूप हमारे अन्दर क्रोधादि कषाय- भाव अथवा कामादि भोग-भाव उत्पन्न होना ही हैं, तो फिर स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि हम विमुक्ति की दिशा में आगे कैसे बढें ? इस हेतु जैन आचार्यों ने दो उपायों का प्रतिपादन किया है- (1) संवर और (2) निर्जरा | संवर का तात्पर्य है कि विपाक की स्थिति में प्रतिक्रिया से रहित रहकर नवीन कर्मास्रव एवं बंध को नहीं होने देना और निर्जरा का तात्पर्य है पूर्व कर्मों के विपाक की समभावपूर्वक अनुभूति करते हुए उन्हें निर्जरित कर देना, या फिर तप साधना द्वारा पूर्वबद्ध अनियत विपाकी कर्मों को समय से पूर्व उनके विपाक को प्रदेशोदय के माध्यम से निर्जरित करना। . यह सत्य है कि पूर्वबद्ध कर्मों के विपाकोदय की स्थिति में क्रोधादि आवेग अपनी अभिव्यक्ति के हेतु चेतना के स्तर पर आते हैं, किन्तु यदि आत्मा उस समय अपने को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर साक्षीभाव में स्थिर रखे और उन उदय में आ रहे क्रोधादि भावों के प्रति मात्र द्रष्टा भाव रखे, तो वह भावी बंधन से बचकर पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है और इस प्रकार वह बंधन से विमुक्ति की ओर अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है। वस्तुतः, विवेक व अप्रमत्तता ऐसे तथ्य हैं, जो हमें नवीन बंधन से बचाकर विमुक्ति की ओर अभिमुख करते हैं। व्यक्ति में जितनी अप्रमत्तता या आत्म-चेतनता होगी, उसका विवेक उतना जाग्रत रहेगा। वह बंधन से विमुक्ति की दिशा में आगे बढ़ेगा। जैन कर्म सिद्धान्त बताता है कि कर्मों के विपाक के संबंध में हम विवश या परतन्त्र होते हैं, किन्तु उस विपाक की दशा में भी हममें इतनी स्वतन्त्रता अवश्य होती है कि हम नवीन कर्म-परम्परा का संचय करें या न करें- ऐसा निश्चय कर सकते हैं। वस्तुतः, कर्म-विपाक के सन्दर्भ में हम परतन्त्र होते हैं, किन्तु नवीन कर्मबंध