________________ जैन धर्म एवं दर्शन-623 जैन - आचार मीमांसा -155 के संदर्भ में हम आंशिक रूप में स्वतन्त्र हैं। इसी आंशिक स्वतंत्रता द्वारा हम मुक्ति अर्थात् पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते है। जो साधक विपाकोदय के समय साक्षी-भाव या ज्ञाता-द्रष्टाभाव में जीवन जीना जानता है, वह निश्चय ही कर्म-विमुक्ति को प्राप्त कर लेता है। त्रिविध साधना-मार्ग जैन-दर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधना-मार्ग प्रस्तुत करता है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र मोक्ष का मार्ग है।' उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, ऐसे चतुर्विध मोक्ष-मार्ग का भी विधान है। जैन-आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में किया है और इसलिए परवर्ती साहित्य में इसी त्रिविध साधना-मार्ग का विधान मिलता है। उत्तराध्ययन में भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में त्रिविध साधना-पथ का विधान है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं नियमसार में , आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में त्रिविध साधनापथ का विधान किया है। . त्रिविध साधना-मार्ग ही क्यों ? - यह प्रश्न उठ सकता है कि त्रिविध साधना-मार्ग का ही विधान क्यों किया गया है ? वस्तुतः, त्रिविध साधना-मार्ग के विधान में पूर्ववर्ती ऋषियों एवं आचार्यों की गहन मनोवैज्ञानिक सूझरही है। मनोवैज्ञानिकदृष्टि से मानवीय-चेतना के तीन पक्ष माने गए हैं - ज्ञान, भाव और संकल्प / नैतिकजीवन का साध्य चेतना के इन तीनों पक्षों का विकास माना गया है, अतः यह आवश्यक ही था कि इन तीनों पक्षों के विकास के लिए त्रिविध साधना-पथ का विधान किया जाए। चेतना के भावात्मक-पक्ष को सम्यक् बनाने के लिए एवं उसके सही विकास के लिएं सम्यग्दर्शन या श्रद्धा की साधना का विधान किया गया। इसी प्रकार, ज्ञानात्मकपक्ष के लिए ज्ञान का और संकल्पात्मक- पक्ष के लिए सम्यक्चारित्र का विधान है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि त्रिविध साधना-पथ के विधान के पीछे एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है। .. बौद्ध-दर्शन में त्रिविध साधना-मार्ग- बौद्ध-दर्शन में भी त्रिविध साधना मार्ग का विधान है। प्राचीन बौद्ध-ग्रंथों में इसी का विधान अधिक है। वैसे, बुद्ध ने * अष्टांग-मार्ग का भी प्रतिपादन किया है, लेकिन यह अष्टांग-मार्ग भी त्रिविध साधना