________________ जैन धर्म एवं दर्शन-621 जैन- आचार मीमांसा -153 सर्वघाती और देशघाती कर्म-प्रकृतियाँ- आत्मा के स्व-लक्षणों का आवरण करने वाले घातीकर्मों की 45 कर्म-प्रकृतियाँ भी दो प्रकार की हैं1. सर्वघाती और 2. देशघाती। सर्वघाती कर्म-प्रकृति किसी आत्मगुण को पूर्णतया आवरित करती है और देशघाती कर्म-प्रकृति उसके एक अंश को आवरित करती है। आत्मा के स्वाभाविक सत्यानुभूति नामक गुण को मिथ्यात्व (अशुद्ध दृष्टिकोण) सर्वरूपेण आच्छादित कर देता है। अनन्तज्ञान (केवलज्ञान) और अनन्तदर्शन (केवलदर्शन) नामक आत्मा के गुणों का आवरण भी पूर्ण रूप से होता है। पाँचों प्रकार की निद्राएँ भी आत्मा की सहज अनुभूति की क्षमता को पूर्णतया आवरित करती हैं। इसी प्रकार, चारों कषायों के पहले तीनों प्रकार, जो कि संख्या में बारह होते हैं, भी पूर्णतया बाधक बनते हैं। अनन्तानुबन्धी-कर्षाय सम्यक्त्व का, प्रत्याख्यानी-कषाय देशव्रती-चारित्र (गृहस्थ-धर्म) का और अप्रत्याख्यानी-कषाय सर्वव्रती-चारित्र (मुनिधर्म) का पूर्णतया बाधक बनता है, अतः ये बीस प्रकार की कर्मप्रकृतियाँ सर्वघाती कही जाती हैं, शेष ज्ञानावरणीय-कर्म की चार, दर्शनावरणीय-कर्म की तीन, मोहनीय-कर्म की तेरह, अन्तराय-कर्म की पाँच, कुल पच्चीस कर्मप्रकृतियाँ देशघाती कही जाती हैं। सर्वघात का अर्थ मात्र इन गुणों के पूर्ण प्रकटन को रोकना है, न कि इन गुणों का अनस्तित्त्व, क्योंकि ज्ञानादि गुणों के पूर्ण अभाव की स्थिति में आत्म-तत्त्व और जड़-तत्त्व में अन्तर ही नहीं रहेगा। कर्म तो आत्मगुणों के प्रकटन में बाधक-तत्त्व है, वे आत्मगुणों को विनष्ट नहीं कर सकते। नन्दीसूत्र में तो कहा गया है कि जिस प्रकार बादल सूर्य के प्रकाश को चाहे कितना ही आवरित क्यों न कर लें, फिर भी वह न तो उसकी प्रकाश-क्षमता को नष्ट कर सकता है और न उसके प्रकाश के प्रकटन को पूर्णतया रोक सकता है, उसी प्रकार चाहे कर्म ज्ञानादि आत्मगुणों को कितना ही आवृत्त क्यों न कर ले, फिर भी उनका एक अंश हमेशा ही अनावृत्त रहता है। कर्म-बन्धन से मुक्ति जैन-कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता है कि प्रत्येक कर्म अपना विपाक या फल देकर आत्मा से अलग हो जाता है। इस विपाक की