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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-620 जैन - आचार मीमांसा-152 हिंसा में त्तपर व्यक्ति भी अन्तराय-कर्म का संचय करता है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना ही अन्तराय कर्म के बंध का कारण है। घाती और अघाती कर्म ___ कर्मों के इस वर्गीकरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय- इन चार कर्मों को 'घाती और नाम, गौत्र, आयुष्य और वेदनीय- इन चार कर्मों को 'अघाती' माना जाता है। घाती-कर्म आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति नामक गुणों का आवरण करते हैं। ये कर्म आत्मा की स्वभावदशा को विकृत करते हैं, अतः जीवन मुक्ति में बाधक होते हैं। इन घाती-कर्मों में अविद्या-रूप मोहनीय कर्म ही आत्मस्वरूप की आवरण क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल की दृष्टि से प्रमुख है। वस्तुतः, मोहकर्म ही एक ऐसा कर्म-संस्कार है, जिसके कारण कर्मबंध का प्रवाह सतत् बना रहता है। मोहनीय कर्म उस बीज के समान है, जिसमें अंकुरण की शक्ति है। जिस प्रकार उगने योग्य बीज हवा, पानी आदि के सहयोग से अपनी परम्परा को बढाता रहता है, उसी प्रकार मोहनीयरूपी कर्म-बीज ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायरूप हवा, पानी आदि के सहयोग से कर्म-परम्परा को सत्त् बनाये रखता है। मोहनीय कर्म ही जन्म, मरण, संसार या बंधन का मूल है, शेष घातीकर्म उसके सहयोगी मात्र है। इसे कर्मों का सेनापति कहा गया है। जिस प्रकार सेनापति के पराजित होने पर सारी सेना हतप्रभ हो शीघ्र ही पराजित हो जाती है, उसी प्रकार मोहकर्म पर विजय प्राप्त कर लेने पर शेष कर्मों को आसानी से पराजित कर आत्मशुद्धता की उपलब्धि की जा सकती है। जैसे ही मोह नष्ट हो जाता है, वैसे ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण का पर्दा हट जाता है, अन्तराय या बाधकता समाप्त हो जाती है और व्यक्ति (आत्मा) जीवनमुक्त बन जाता है। अघातीकर्म वे हैं, जो आत्मा के स्वभाव दशा की उपलब्धि और विकास में बाधक नहीं होते। अघाती-कर्म भुने हुए बीज के समान हैं, जिनमें नवीन कर्मों की उत्पादन क्षमता नहीं होती। वे कर्म-परम्परा का प्रवाह बनाये रखने में असमर्थ होते हैं और समय की परिपक्वता के साथ ही अपना फल देकर सहज ही अलग हो जाते हैं।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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