________________ जैन धर्म एवं दर्शन-619 जैन- आचार मीमांसा -151 में जन्म लेकर निम्नोक्त आठ क्षमताओं से युक्त होता है- 1. निष्कलंक मातृ-पक्ष (जाति), 2. प्रतिष्ठित पितृ-पक्ष (कुल), 3. सबल शरीर, 4. सौन्दर्ययुक्त शरीर, 5. उच्च साधना एवं तप-शक्ति, 6. तीव्र बुद्धि एवं विपुलज्ञान राशि पर अधिकार, 7. लाभ एव विविध उपलब्धियाँ और 8. अEि कार, स्वामित्व एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति, लेकिन अहंकारी व्यक्तित्त्व उपुर्यक्त समग्र क्षमताओं से अथवा इनमें से किन्हीं विशेष क्षमताओं से वंचित रहता है। 8. ' अन्तराय-कर्म अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुंचाने वाले कारण को अन्तराय कर्म कहते हैं। यह पाँच प्रकार का है1. दानान्तराय- दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया जा सके, 2. लाभान्तराय- कोई प्राप्ति होने वाली हो लेकिन किसी कारण से उसमें बाधा आ जाना, 3. भोगान्तराय- भोग में बाधा उपस्थित होना, जैसे- व्यक्ति सम्पन्न हो, भोजनगृह में अच्छा सुस्वादु भोजन भी बना हो, लेकिन अस्वस्थता के कारण उसे मात्र खिचड़ी ही खानी पड़े। 4. उपभोगान्तराय- उपभोग की सामग्री के होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता, 5. . वीर्यान्तराय- शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उसका उपयोग नहीं किया जा सकना। (तत्त्वार्थसूत्र, 8.14). के जैन नीति-दर्शन के अनुसार, जो व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के दान, लाभ, भोग, उपभोग-शक्ति के उपयोग में बाधक बनता है, वह भी अपनी उपलब्ध सामग्री एवं शक्तियों का समुचित उपयोग नहीं कर पाता है, जैसे- कोई व्यक्ति किसी दान देने वाले व्यक्ति को दान प्राप्त करने वाली संस्था के बारे में गलत सूचना देकर या अन्य प्रकार से दान देने से रोक देता है, अथवा किसी भोजन करते हुए व्यक्ति को भोजन पर से उठा देता है, तो उसकी उपलब्धियों में भी बाधा उपस्थित होती है, अथवा भोग-सामग्री के होने पर भी वह उसके भोग से वंचित रहता है। कर्मग्रन्थ के अनुसार, जिन-पूजा आदि धर्म-कार्यों में विघ्न उत्पन्न करने वाला और