________________ जैन धर्म एवं दर्शन-582 जैन- आचार मीमांसा-114 नियतिवादी धारणाएँ व्यक्ति की स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी विचार प्रस्तुत करती हैं, अतः सामान्य व्यक्ति के लिए यह कठिन हो जाता है कि वह किसे सत्य और किसे असत्य कहे। दार्शनिकों ने प्राचीन काल से इन सिद्धान्तों की गहन समीक्षा की है ओर इनके औचित्य का ठीक-ठीक मूल्यांकन करने का भी प्रयास किया है। अगले पृष्ठों में उनकी समीक्षाएँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। नैतिक आचरण की पूर्व मान्यता के रूप में जैन दर्शन निम्न छह बातों को आवश्यक माना है1. आत्मा है 2. आत्मनित्य है (आत्मा अमर है) 3. आत्मा कर्मों का कर्ता है (कर्म करने में स्वतंत्र है) 4. आत्मा कर्म-फल का भोक्ता है (अर्थात कर्मफल के भोग में परतन्त्र है) . 5. कर्म बन्धन से मुक्ति सम्भव है। 6. कर्म बन्धन से मुक्त होने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की साधना आवश्यक है। आत्मा के कर्तृव्य और भोक्तृत्व को समझाने के लिए हम यहाँ सर्वप्रथम जैन कर्मसिद्धान्त की और फिर . त्रिविध मोक्ष मार्ग की चर्चा करेंगे / 0 जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण कर्मसिद्धान्त का उद्भव एवं विकास कर्मसिद्धान्त का उद्भव सृष्टि-वैचित्र्य, वैयक्तिक-भिन्नताओं, व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों एवं शुभाशुभ मनोवृत्तियों के कारण की व्याख्या के प्रयासों में ही हुआ है। सृष्टि-वैचित्र्य एवं वैयक्तिक भिन्नताओं के कारण की खोज के इन प्रयासों से विभिन्न विचारधाराएं अस्तित्त्व में आयीं। श्वेताश्वतरोपनिषद्, अंगुत्तरनिकाय और सूत्रकृतांग में हमें इन विभिन्न विचारधाराओं की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में इन विचारधाराओं की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में इन विचारधाराओं की समीक्षा भी की गई है।