________________ जैन धर्म एवं दर्शन-581 जैन- आचार मीमांसा-113 अनुसार जन्मकाल में भागदेयों के भेद को अकारण एवं संयोगजन्य मानना होगा। कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म डॉ. मोहनलाल मेहता कर्मसिद्धान्त के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनके शब्दों में, कर्मसिद्धान्त अनिवार्य रूप से पुनर्जन्म के प्रत्यय से संलग्न है, पूर्ण विकसित पुनर्जन्म-सिद्धान्त के अभाव में कर्मसिद्धान्त अर्थशून्य है। आचारदर्शन के क्षेत्र में यद्यपि पुनर्जन्म-सिद्धान्त ओर कर्मसिद्धान्त एक-दूसरे के अति निकट हैं, फिर भी धार्मिक क्षेत्र में विकसित कुछ आचारदर्शनों ने कर्मसिद्धान्त को स्वीकार करते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं किया है। कट्टर पाश्चात्य निरीश्वरवादी–दार्शनिक नित्शे ने कर्मशक्ति और पुनर्जन्म पर जो विचार व्यक्त किए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं, कर्म-शक्ति के जो हमेशा रूपान्तर हुआ करते हैं, वे मर्यादित हैं तथा काल-अनन्त हैं, इसलिए कहना पड़ता है कि जो नामरूप एक बार हो चुके हैं, वही फिर आगे यथापूर्व कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होते ही हैं। __ आत्मा की स्वतन्त्रता या संकल्प की स्वतन्त्रता के लिए जैन दार्शनिकों का कथन है कि आत्मा के पास सीमित स्वतन्त्रता है। सभी संसारी जीवात्माएँ अंशतः कार्यों के कारण परतंत्र हैं, किन्तु वे अपनी सीमित स्वतंत्रता का सदुपयोग करके पूर्ण स्वतंत्र का मुक हो सकते हैं / व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के दो दृष्टिकोण . यदि स्वतन्त्रता आवश्यक है, तो प्रश्न यह उठता है कि क्या व्यक्ति स्वतन्त्र है? इस विषय में प्राचीन काल से ही दो दृष्टिकोण रहे हैं। जिन लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर स्वीकारात्मक रूप से दिश और यह माना कि व्यक्ति कृत्यों के चयन और उनके सम्पादन में स्वच्छन्द है, उन्हें प्राचीन भारतीय-दर्शन में यदृच्छावादी कहा जाता है और पाश्चात्य-विचारकों ने इस प्रश्न का उत्तर निषेधात्मक-रूप में दिया और यह माना कि व्यक्ति में ऐसी स्वच्छन्दता का अभाव है, उन्हें भारतीय-चिन्तन में नियतिवादी, भाग्यवादी, दैववादी आदि रूप में जाना जाता है। पश्चिम में इन्हें नियतिवादी, परतन्त्रतावादी या निर्धारणवादी कहते हैं। यदृच्छावादी और