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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-580 जैन- आचार मीमांसा-112 प्रत्येक्ष अनुभव से सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा है। ___ आचार्य शंकर भी ब्रह्मसूत्रभाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते हैं कि जो निरसन कर रहा है, वही तो उसका स्वरूप है। आत्मा के अस्तित्व के लिए स्वतः बोध को शंकर भी एक प्रबल तर्क के रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि सभी को आत्मा के अस्तित्व में भरपूर विश्वास है, कोई भी ऐसा नहीं कहता है कि मैं नहीं हूँ। अन्यत्र शंकर स्पष्ट रूप से यह भी कहते हैं कि बौध से सत्ता को और सत्ता से बोध को पृथक नहीं किया जा सकता। यदि हमें आत्मा का स्वतः बोध होता है, तो उसकी सत्ता निर्विवाद है। __पाश्चात्य-विचारक देकार्त ने भी इसी तर्क के आधार पर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है। वह कहता है कि सभी के अस्तित्व सन्देह से परे है। सन्देह करना विचार करना है और विचारक के अभाव में विचार नहीं हो सकता। मैं विचार करता हूँ, अतः मैं हूँ। इस प्रकार, देकार्त के अनुसार भी आत्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। " आत्मा की अमरता के लिए जैनदार्शनिकों ने निम्न तर्क दिये हैं__ आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म का प्रत्यय जुड़ा हुआ है। भारतीय-दर्शनों में चार्वाक को छोड़कर शेष सभी दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। अब आत्मा को अमर मान लिया जाता है, तो पुनर्जन्म भी स्वीकार करना ही होगा / गीता कहती है, जिस प्रकार मनुष्य वस्त्रों की जीर्ण हो जाने पर नए वस्त्र ग्रहण करता रहता है, वैसे ही यह आत्मा भी जीर्ण शरीर को छोड़कर नया शरीर ग्रहण करता रहता है। न केवल गीता में, वरन् बौद्ध-दर्शन में भी इसे माना गया है। डॉ. रामानन्द तिवारी पुनर्जन्म के पक्ष में लिखते हैं कि एक जन्म के सिद्धान्त के अनुसार चिरन्तन आत्मा और नश्वर शरीर का सम्बन्ध एक काल-विशेष में आरम्भ होकर एक काल-विशेष में ही अन्त हो जाता है, किन्तु चिरन्तन का कालिक-सम्बन्ध अन्याय (तर्कविरूद्ध) है और इस (एक जन्म के) सिद्धान्त से उसका कोई समाधान नहीं है- पुनर्जन्म का सिद्धान्त के
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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