________________ जैन धर्म एवं दर्शन-579 जैन- आचार मीमांसा -111 संकल्प की स्वतन्त्रता स्वचेतन (आत्मचेतन) आत्मतत्त्व में ही हो सकती है। . 8. यदि नैतिकता एक आदर्श है, तो आदर्श की अभिस्वीकृति और उसकी उपलब्धि का प्रयास आत्मा के द्वारा ही सम्भव है। __ जैन-दर्शन में आत्मा का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न पर समुचित रूप से विचार करने के लिए हमें यह जान लेना होगा कि किसी तर्कसिद्ध नैतिक-दर्शन के लिए किस प्रकार के आत्मसिद्धान्त की आवश्यकता है और जैन-दर्शन की तत्सम्बन्धी मान्यताएँ कहाँ तक नैतिक-विचारणा के अनुकूल हैं। यहाँ तात्त्विक-समालोचनाओं में जाकर मात्र नैतिकता की दृष्टि से ही आत्म-सम्बन्धी मान्यताओं पर विचार किया गया है। आत्म का अस्तित्व जहाँ तक नैतिक-जीवन का प्रश्न है, आत्मा के अस्तित्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है। जैन-दर्शन में नैतिक-विकास की पहली शर्त आत्मविश्वास है। जैन-विचारकों ने आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किए हैं 1. जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि असद् की कोई सार्थ संज्ञा ही नहीं बनती। . 2. जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है। देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष / . . 3. शरीर स्थित जो यह सोचता है कि मैं नहीं हूँ, वही तो जीव है। जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है / यदि आत्मा ही न हो, तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि मैं हूँ? जो निषेध कर रहा है, वह स्वयं ही आत्मा है। संशय के लिए किसी ऐसे तत्त्व की अनिवार्यता है, जो उसका आधार हो। बिना अधिष्ठान के किसी ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। संशयी ही नहीं है, तो 'मैं हूँ' या 'नहीं हूँ', यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है? यदि तुम स्वयं ही अपने खुद के विषय में सन्देह कर सकते हो, तो फिर किसमें संशय न होगा, क्योंकि संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं, सब आत्मा के कारण ही हैं। जहाँ संशय होता है, वहाँ आत्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकारना पड़ता है। जो