________________ जैन धर्म एवं दर्शन-578 जैन- आचार मीमांसा -110 है.। मोक्ष आत्मा का शुद्ध स्वरूप है अतः नैतिकता से परे या अति नैतिक है। पुण्य और पाप क्रमशः शुभ कर्म परोपकार के प्रतीक हैं और अशुभ कर्म पर-पीड़नरूप पापकार्य के प्रतीक हैं। आत्मा का लक्ष्य पुण्य और पाप दोनों का अतिक्रमण कर शुद्धावस्था (मोक्ष) को प्राप्त करना है। मोक्ष आत्मपूर्णता या आत्मा की पूर्ण स्वतन्त्रता की अवस्था है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए संवर (संयम) और निर्जरा (तप) की साधना आवश्यक है। 'कान्ट ने जिन तीन नैतिक मान्यताओं की चर्चा की है, उनमें आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए जैन दार्शनिकों ने निम्न तर्क दिये हैं आत्मा के प्रत्यय की आवश्यकता आत्मा का प्रत्यय नैतिक-विचारणा के लिए क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न का समुचित उत्तर निम्न तर्कों के आधार पर दिया जा सकता है 1. नैतिकता एक विचार है, जिसे किसी विचारक की अपेक्षा है / 2. नैतिकता और अनैतिकता कार्यों के माध्यम से ही अभिव्यक्त होती है। सामान्यजन विचारपूर्वक सम्पादित कार्यों के आधार पर उसके कर्ता को नैतिक अथवा अनैतिक मान्यता है, अतः विचारपूर्वक कार्यों के सम्पादित करने वाला स्वचेतन कर्ता नैतिक-दर्शन के लिए आवश्यक है। ____ 3. शुभाशुभ का ज्ञान एवं विवेक नैतिक-उत्तरदायित्व की अनिवार्य शर्त है। नैतिक-उत्तरदायित्व किसी विवेकवान् चेतना के अभाव में सम्भव नहीं है। ___4. नैतिक या अनैतिक कर्मों के लिए कर्ता उसी स्थिति में उत्तरदायी है, जब कर्म स्वयं कर्ता का हो / यह स्व का विचार आत्मा का विचार है एवं आत्माश्रित है / ___5. नैतिक-उत्तरदायित्व के लिए कर्म कर्ता के संकल्प का परिणाम होना चाहिए। संकल्प चेतना (आत्मा) के द्वारा ही हो सकता है। ____6. नैतिक एवं अनैतिक-कर्म के सम्पन्न होने के पूर्व विभिन्न इच्छाओं एवं वासनाओं के मध्य संघर्ष होता है और उसमें से किसी एक का चयन होता है, अतः इस संघर्ष का द्रष्टा एवं चयन का कर्ता कोई स्वचेतन आत्म-तत्त्व ही हो सकता है / 7. नैतिक-उत्तरदायित्व में संकल्प की स्वतन्त्रता अनिवार्य शर्त है और