________________ जैन धर्म एवं दर्शन-577 जैन- आचार मीमांसा -109 अन्तर्गत आते है। जैन-दर्शन की तत्त्वयोजना में स्वीकृत नवतत्त्वों का बहुत कुछ सम्बन्ध भी नैतिक-मान्यताओं से है। फिर भी, पाश्चात्य-परम्परा के साथ सुविधापूर्ण / तुलना के लिए जैन-तत्त्वयोजना के आधार पर नैतिक-मान्यताओं को निम्न रूप में रखा जा सकता है। (अ) कर्ता से सम्बन्धित नैतिक-मान्यताएँ - (1) आत्मा का बौद्धिक एवं आनन्दमय स्वरूप, (2) आत्मा की अमरता या पुनर्जन्म का प्रत्यय और (3) आत्मा की स्वतन्त्रता। (ब) कर्म से सम्बन्धित नैतिक-मान्यताएँ - (4) कर्मसिद्धान्त, (5) बन्धन (दुःख) तथा उसके कारण (6) कर्म का शुभत्व, अशुभत्व एवं शुद्धत्व, (7) बन्धन से मुक्ति के उपाय (संवर एवं निर्जरा) __ (स) नैतिक-साध्य से सम्बन्धित नैतिक– मान्यताएँ - (8) नैतिक-जीवन का ऐहिक-आदर्श (अर्हत्व), (9) नैतिक-जीवन का चरम साध्य (मोक्ष) .. जैन-चिन्तन में आत्मा के अस्तित्व की अवधारणा, कर्मसिद्धान्त की अवधारणा और ईश्वर (मुक्त आत्मा) के अस्तित्व की अवधारणा के पीछे मूल रूप से नीतिशास्त्र को एक ठोस तात्त्विक-आधार प्रदान करने की दृष्टि रही है, इसलिए जैन दर्शन में चाहे आत्मा के अस्तित्व को, या मुक्तात्मा या मोक्ष के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न हो, उसे नैतिक आधार पर ही पुष्ट करने का प्रयास हुआ है। . जैन दर्शन में नैतिकता की पूर्व मान्यता के रूप में सात या नवतत्त्वों की अवधारणा है। इनके मूल में जीव और अजीव तत्त्व ही है। अजीव तत्त्व के रूप जैन दार्शनिकों ने कर्म पुद्गल को ही बन्धन का तोत्विक आधार माना है। आस्रव-कर्म पुद्गलों का आत्मा की ओर आना है। संवर कर्म पुदगलों का आत्मा की ओर आगमन का रूक जाना है, यह मनवाक् और काया (इन्द्रिय) के संयम से होता है। आत्मा और कर्म पुद्गलों का संश्लिष्ट (एकमेक) होना बन्ध है और इनको एक दूसरे से अलग-अलग करने की प्रक्रिया निर्जरा है और अन्त में आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप होना मोक्ष है। अतः नव या सात तत्त्वों में से आस्रव और बन्ध, ये * दो अशुभ है या अनैतिक हैं। जबकि संवर और निर्जरा की प्रक्रिया नैतिक