________________ जैन धर्म एवं दर्शन-576 जैन - आचार मीमांसा -108 पाश्चात्य आचारदर्शन की नैतिकता की पूर्व मान्यताएँ नैतिक पूर्व मान्यता वे होती हैं, जो व्यक्ति पर नैतिक उत्तरदायित्व को डालने के लिए आवश्यक होती हैं। पाश्चात्य आचारदर्शन में सर्वप्रथम कांट ने तीन नैतिक पूर्व मान्यताओं की स्थापना की- (1) संकल्प की स्वतन्त्रता, (2) आत्मा की अमरता और (3) ईश्वर की अस्तित्व / केल्डरउड ने संकल्प की स्वतंत्रता एवं अमरता के अतिरिक्त व्यक्तित्व, बौद्धिकता (मनीषा) तथा शक्ति को भी नैतिक-जीवन के लिए आवश्यक माना है। कांट नैतिक-प्रगति की अनिवार्यता के आधार पर आत्मा की अमरता को सिद्ध करते हैं, जबकि अरबन ने उसे भी स्वतन्त्र रूप से नैतिकता की पूर्व मान्यता कहा। रशडाल विश्व के बौद्धिक-प्रयोजन, काल तथा अमंगल की वास्तविकता को भी नैतिकता की मान्यता के अन्तर्गत ले जाते हैं। बोसांके भी अमंगल की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, पाश्चात्य-आचारदर्शन में स्वीकृत मुख्य नैतिक-मान्यताएँ हैं-(1) मनीषा (विवेकबुद्धि) और कर्मशक्ति से युक्त आत्मा (व्यक्तित्व), (2) आत्मा की अमरता, (3) आत्मा की स्वतन्त्रता, (4) ईश्वर का अस्तित्व (नैतिक-मूल्यों का स्रोत एवं नैतिक-जीवन का आदर्श), (5) नैतिक-प्रगति (नैतिक–पूर्णता की सम्भावना) तथा (6) अमंगल (अशुभ) की वास्तविकता। जैन आचारदर्शन की नैतिकता की पूर्व मान्यताएँ, भारतीय आचारदर्शन में कर्मसिद्धान्त का नैतिकता की मूलभूत मान्यता कहा जा सकता है। कर्मसिद्धान्त कर्म और उनके प्रतिफल के अनिवार्य सम्बन्ध को सूचित करता है। कर्मसिद्धान्त की सहयोगी नैतिक-मान्याताएँ हैं- 1. आत्मा (कर्ता) का अस्तित्व, 2. पुनर्जन्म की अवधारणा (आत्मा की अमरता) एवं 3. कर्म के चयन की स्वतन्त्रता / यद्यपि इसी प्रकार कर्मफल के प्रदाता अथवा नैतिक-जीवन के आदर्श के रूप में ईश्वर के अस्तित्व की मान्यता भी प्रायः सभी भारतीय आचारदर्शनों में प्रमुख रही है, तथापि जैनदर्शन कर्मफलप्रदाता के रूप में ईश्वर को नहीं मानता है। उसके दर्शन में ईश्वर नैतिक पूर्णता का प्रतीक मात्र हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय-दर्शन. में बन्धन (दुःख) और उसके कारण तथा दुःख से मुक्ति (दुःख-विमुक्ति) और दुख विमुक्ति के उपाय (साधनापथ) भी नैतिक पूर्व मान्यता के