________________ जैन धर्म एवं दर्शन-583 जैन- आचार मीमांसा-115 इस सम्बन्ध में प्रमुख मान्यताएँ निम्न हैं1. कालवाद- यह सिद्धान्त सृष्टि-वैविध्य और वैयक्तिक-विभिन्नताओं का कारण काल को स्वीकार करता है। जिसका जो समय या काल होता है, तभी वह घटित होता है, जैसे- अपनी ऋतु (समय) आने पर ही वृक्ष में फल लगते हैं। 2. स्वभाववाद- संसार में जो भी घटित होगा, या होता है, उसका आध गार वस्तुओं का अपना-अपना स्वभाव है। संसार में कोई भी स्वभाव का उल्लंघन नहीं कर सकता है। 3. नियतिवाद- संसार का समग्र घटना-क्रम पूर्व नियत है, जो जिस रूप में होना होता है, वैसा ही होता है, उसे कोई अन्यथा नहीं कर सकता। 4. यदृच्छावाद- किसी भी घटना का कोई नियत हेतु या कारण नहीं होता है। समस्त घटनाएँ मात्र संयोग का परिणाम हैं। यदृच्छावाद हेतु के स्थान पर संयोग (Chance) को प्रमुख बना देता है। 5. महाभूतवाद- समग्र अस्तित्त्व के मूल में पंचमहाभूतों की सत्ता रही है। संसार उनके वैविध्यमय विभिन्न संयोगों का ही परिणाम है। 6. प्रकृतिवाद- विश्व-वैविध्य त्रिगुणात्मक प्रकृति का ही खेल है। मानवीय सुख-दुःख भी प्रकृति के ही अधीन हैं। 7. ईश्वरवाद- ईश्वर ही इस जगत् का रचयिता एवं नियामक है, जो कुछ भी होता है, वह सब उसकी इच्छा या क्रियाशक्ति का परिणाम है। 8. पुरुषवाद- वैयक्तिक विभिन्नता और सांसारिक घटना-क्रम के मूल में पुरुष का पुरुषार्थ ही प्रमुख है। वस्तुतः, जगत्-वैविध्य और वैयक्तिक भिन्नताओं की तार्किक व्याख्या के इन्हीं प्रयत्नों में कर्मसिद्धान्त का विकास हुआ है, जिसमें पुरुषवाद की प्रमुख भूमिका रही है। कर्मसिद्धान्त उपर्युक्त सिद्धान्तों का पुरुषवाद के साथ समन्वय का प्रयत्न है। .. श्वेताश्वतरोपनिषद् के प्रारम्भ में ही प्रश्न उठाया गया है कि हम किसके द्वारा प्रेरित होकर संसार-यात्रा का अनुवर्त्तन कर रहे हैं। आगे, ऋषि यह जिज्ञासा प्रकट करता है कि क्या काल, स्वभाव, नियति,