________________ जैन धर्म एवं दर्शन-564 जैन- आचार मीमांसा-96 जैविक-आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में जो भोग किए जाते हैं, वे स्वयंसाध्य नहीं, वरन् जीवन या शरीर-रक्षण के साधनमात्र हैं। इन सबका साध्य स्वास्थ्य एवं जीवन है। हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए जीते हैं। यदि हम कामपुरुषार्थ को कला, दाम्पत्य, रति या स्नेह के रूप में मानें, तो वह भी आनन्द का एक साधन ही ठहरता है। इस प्रकार, कामपुरुषार्थ का भी स्वतः मूल्य सिद्ध नहीं होता। उसका जो भी स्थान हो सकता है, वह मात्र उसके द्वारा व्यक्ति के आनन्द में की गई अभिवृद्धि पर निर्भर करता है, यदि अल्पकालिक ही है। भारतीय विचारकों ने कामपुरुषार्थ को निम्न स्थान उसकी क्षणिकता के आधार पर दिया है। तीसरे, अपने फल या परिणाम के आधार पर भी काम-पुरुषार्थ निम्न स्थान पर ठहरता है, क्योंकि वह अपने पीछे दुष्पूर-तृष्णा को छोड़ जाता है। उसे उपलब्ध होने वाले आनन्द की तुलना खुजली खुजाने से की गई है, जिसकी फल-निष्पत्ति क्षणिक सुख के बाद तीव्र वेदना में होती है। धर्मपुरुषार्थ सामाजिक एवं धार्मिक-मूल्य के रूप में स्वतः साध्य है, लेकिन वह भी मोक्ष का साधन माना गया है, जो सर्वोच्च मूल्य है। इस प्रकार, अरबन के उपर्युक्त मूल्यनिर्धारण के नियमों के आधार पर भी अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष-पुरुषार्थों का यही क्रम सिद्ध होता है, जो कि जैन और दूसरे भारतीय-आचारदर्शनों में स्वीकृत है, जिसमें अर्थ सबसे निम्न मूल्य है और मोक्ष सर्वोच्च मूल्य है। मोक्ष सर्वोच्च मूल्य क्यों? इस सम्बन्ध में ये तर्क दिए जा सकते हैं__ 1. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवमात्र की प्रवृत्ति दुःख-निवृत्ति की ओर होती है, क्योंकि मोक्ष दुःख की आत्यन्तिक-निवृत्ति है; अतः वह सर्वोच्च मूल्य है। इसी प्रकार, आनन्द की उपलब्धि भी प्राणीमात्र का लक्ष्य है, चूंकि मोक्ष परम आनन्द की अवस्था है, अतः वह सर्वोच्च मूल्य है। ___ 2. मूल्यों की व्यवस्था में साध्य-साधक की दृष्टि से एक क्रम होना चाहिए और उस क्रम में कोई सर्वोच्च एवं निरपेक्ष-मूल्य होना चाहिए। मोक्ष पूर्ण एवं निरपेक्ष-स्थिति है, अतः वह सर्वोच्च मूल्य हैं। मूल्य वह है, जो किसी इच्छा की पूर्ति करे, अतः जिसके प्राप्त हो जाने पर कोई इच्छा