________________ जैन धर्म एवं दर्शन-563 जैन- आचार मीमांसा-95 है, तो वह दूसरे के विरोध में खड़ा हो जाता है और जीवन के विकास को अवरुद्ध करता है। जैनागम-साहित्य में मम्मन सेठ की कथा अर्थ को साध्य मान लेने का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिससे प्रकट है कि जब 'धन' साध्य बन जाता है, तो वह ऐहिक ओर पारलौकिक-दोनों जीवन में कष्ट ही लाता है। इसी आशय को सामने रखते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि 'धन में प्रमत्त पुरुष का धन, अर्थात् उस व्यक्ति का धन, जिसके लिए धन ही साध्य है, न तो इस लोक में और न परलोक में ही ऐसे आदमी की रक्षा कर सकता है। धन के असीम मोह से मूढ़ बना हुआ वह व्यक्ति, दीपक के बुझ जाने पर जैसे मार्ग को जानते हुए भी मार्ग नहीं देखता, वैसे ही वह भी न्यायमार्ग या धर्ममार्ग को जानते हुए भी उसे नहीं देख पाता। जैसे एक ही नगर को जाने वाले भिन्न-भिन्न मार्ग परस्पर भिन्न दिशाओं में स्थित होते हुए भी परस्पर विरोधी नहीं कहे जाते, उसी प्रकार परस्पर विरोधी पुरुषार्थ मोक्षाभिमुख होने पर असपत्न (अविरोधी) बन जाते हैं। यहीं उनमें एक मूल्यात्मक तारतम्य स्पष्ट हो जाता है, जिसमें सर्वोच्च स्थान मोक्ष का है, उसके बाद धर्म का स्थान है। धर्म के बाद काम और सबसे अन्त में अर्थ का स्थान आता है, किन्तु अर्थपुरुषार्थ जब लोकोपकार के लिए होता है, तब उसका स्थान कामपुरुषार्थ से ऊपर होता है। पाश्चात्य-विचारक अरबन ने मूल्य-निर्धारण के तीन नियम प्रस्तुत किए हैं- (1) साधनात्मक या परत:- मूल्यों की अपेक्षा साध्यात्मक या स्वतः मूल्य उच्चतर हैं; (2) अस्थायी या अल्पकालिक-मूल्यों की अपेक्षा स्थायी एवं दीर्घकालिक-मूल्य उच्चतर हैं; (3) असृजक-मूल्यों की अपेक्षा सृजक-मूल्य उच्चतर हैं। * यदि प्रथम नियम के आधार पर विचार करें, तो धन, सम्पत्ति, श्रम आदि आर्थिक मूल्य जैविक, सामाजिक और धार्मिक (काम और धर्म) मूल्यों की पूर्ति के साधनमात्र हैं, वे स्वतःसाध्य नहीं हैं। भारतीय-चिन्तन में धन की तीन गतियाँ मानी गई हैं- (1) दान, (2) भोग और (3) नाश / वह दान के रूप में धर्मपुरुषार्थ का भोग के रूप में कामपुरुषार्थ का साधन ही सिद्ध होता है। कामपुरूषार्थ सामान्य रूप में स्वतःसाध्य प्रतीत होता है, लेकिन .. विचारपूर्वक देखने पर वह भी स्वतः साध्य नहीं कहा जा सकता। प्रथमतः,