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________________ आगम निबंधमाला हैं / अत: जो वर्तमान में असन्नि हैं, जिनके हिंसाजन्य प्रवृत्तियों का संकल्प नहीं है; फिर भी वे हिंसा त्यागी नहीं है, पाप त्याग के संकल्प से युक्त हुए बिना भूतकाल के पापमय संकल्पों की परंपरा बंध नहीं होती है / एक असत्यभाषी चालाक व्यक्ति है, झूठ बोलने में प्रसिद्ध है। वह वाचा बंद होने से मूक हो गया। अब बोलने की प्रवृत्ति नहीं होने से वह असत्य का त्यागी नहीं है उसे सत्यवादी भी नहीं कहा जायेगा। वह यदि असत्य का त्याग कर देगा, विरति परिणाम में संकल्प बद्ध हो जायेगा, महाव्रत धारी बन जायेगा; तो सत्यवादी, असत्य त्यागी कहा जा सकेगा। अत: पाप आश्रव रोकने के लिये जीव का अविरतिमय चित्त से परिवर्तित होकर विरतिमय परिणामों में आना आवश्यक है / राजा की हिंसा के संकल्प वाला प्रतिक्षा के समयों में वर्षों में राजा की कुछ भी हानि नहीं करता है, फिर भी वह वधक या अमित्र है / वैसे ही जीव में पापों के आचरण की योग्यता बनी रहती है जिससे वह अप्रत्याख्यान रूप क्रिया का भागी बनता है / प्रश्न- जिसको कभी देखा नहीं, सुना नहीं, जाना नहीं है, उसके प्रति हिंसक चित्त कैसे ? उत्तर- जैन सिद्धांतानुसार जीव सभी योनियों मे भ्रमण करता है, इसलिये उसके पूर्वभव के पापमय, चित्त के संस्कार की परंपरा नष्ट नहीं होती है / इस कारण कोई जीव किसी का अनदेखा नहीं है / अत: वधक परिणामों की परंपरा भवांतर से चली आती है / जिस प्रकार राजा की हिंसा का संकल्पबद्ध व्यक्ति गाढ निद्रा में भी सोता है, फिर भी उसे अहिंसक या राजा का मित्र तो नहीं कहा जा सकता। उसी तरह एकेन्द्रिय आदि सभी जीव विरति परिणाम के अभाव में अविरत है और अविरत जीव आश्रव-कर्माश्रव युक्त होता है। . प्रश्न-जब हम कभी झूठ बोलते नहीं है, किसी जीव को दुःख देते नहीं है, मारते नहीं है तो त्याग का ढोंग और अहं करके आत्मा को भारी क्यों करें ? उत्तर- ऐसा सोचने वाले व्यक्ति अपने आप को निष्पापी और त्यागी होने का झूठा विश्वास करते हैं / वे तीव्र मोह कर्म के नशे में सुप्त
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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