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________________ आगम निबंधमाला होते हैं / वे पाप और त्याग को समझते ही नहीं अर्थात् पापों के सूक्ष्म बादर भेद प्रभेदो से वे अनभिज्ञ है और व्रत-त्याग के माहात्म्य से अजाण है / संसार का छोटा से छोटा प्राणी भी पाप रहित नहीं है। पूर्व तीसरे अध्ययन में बताया गया है कि एकेन्द्रिय जीव भी त्रस स्थावर प्राणियों के प्राणों को विध्वस्त कर उनके अचित्त शरीर का आहार करते हैं / तो मानव की तो बात ही क्या ? उसके जीवन में कदम-कदम पर ज्ञानियों की दृष्टि में अनगिनत पाप रहे हुए हैं / निष्पाप जीवन तो सच्चे त्यागी महाव्रतधारी का हो सकता हैं / अत: संसारी मानव को यथाशक्य पापों का, उपभोग परिभोग का, ऐशोआराम का, इच्छाओं का त्याग-प्रत्याख्यान करना ही चाहिये / प्रत्याख्यान का चित्त ही जीव को आश्रवमुक्त, कर्मबंध मुक्त बना सकता है। प्रत्याख्यान के चित्त से अज्ञान और मिथ्यात्व मिथ्या विचारों का खात्मा होता है / अनंत तीर्थंकरों ने, महापुरुषों ने प्रत्याख्यान को जीवन में उत्तरोत्तर स्थान दिया है। अविरति- अप्रत्याख्यान से प्रत्याख्यान में पहुँच कर ही जीव वास्तव में जिनानुयायी होकर आत्म विकास साध सकता है / विरति को अहं या ढोंग कहना या समझना भी अविरति की, अप्रत्याख्यान की जीव की अनादि टेव का प्रभाव है। उसी अनादि अज्ञान के गुप्त नशे में व्यक्ति अपने आपको ज्यादा ज्ञानी त्यागी या अपापी मानने का भ्रम करता है / उसे जिनवाणी के अध्ययन से सूक्ष्म, सूक्ष्मतम और स्थूल सभी पापों को समझकर वास्तविक और परिपूर्ण पाप त्यागी बनने का प्रयत्न करना चाहिये / इस अध्ययन का परमार्थ :- आत्म कल्याण के इच्छुक आत्माओं को पाप और अविरति को जिनवाणी से भलीभाँति समझ कर पापों का संपूर्ण त्यागी-विरत बनना चाहिये / जब तक पूर्ण त्याग न हो सके तब तक अपने ज्ञान का विकास करके जितना शक्य हो उतना पाप का, प्रवृत्तियों का, भोग- उपभोग सामग्री का और मौज शौक का त्याग करना चाहिये / विरतिमय प्रत्याख्यानमय चित्त की वृद्धि करनी चाहिये अन्यथा अनादि पाप और भोग संस्कार आत्मा पर हावी होकर उसे(अपने आपको अपापी होने का भ्रम रहते हुए भी) पापी और अविरत बनाये रखेंगे। पाप और अविरत का परिणाम संसार परिभ्रमण | 100
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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