________________ आगम निबंधमाला| और दुःख रूप है / जब कि प्रत्याख्यान का परिणाम कर्मबंध मुक्ति और संसार दु:ख मुक्ति रूप है / निबंध-४८ भाषा संबंधी अनाचार एवं विवेक ज्ञान ___(1) लोक द्रव्यापेक्षया शाश्वत है नित्य है और पर्यायापेक्षया अशाश्वत-अनित्य है / (2) तीर्थंकर महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा सदा रहते हैं / भरत-एरवत क्षेत्र की अपेक्षा उनका विच्छेद होता है / (3) सभी प्राणी जीवत्व की अपेक्षा, आत्म तत्त्व की अपेक्षा समान है / वर्तमान भव-अवस्था की अपेक्षा समान-असमान दोनों प्रकार के हो सकते हैं / (4) कुछ जीव सदा कर्म बंधन युक्त ही रहने वाले हैं और कुछ जीव कर्म रहित भी हो सकते हैं / (5) छोटे बडे प्राणी की हिंसा से कभी समान और कभी हीनाधिक कर्मबंध हो सकता है अर्थात् समिति युक्त सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने पर भी सहसा छोटे या बडे जीव की विराधना हो जाय तो उससे कभी समान और कभी असमान कर्म बंध होता है / ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेरहवाँ इन गुणस्थानवी जीवों को समान बंध होता है / शेष गुणस्थानवर्ती जीवों को कभी समान और कभी असमान दोनों प्रकार के कर्म बंध होते हैं / (6) आधाकर्मी आहार-पानी आदि किसी भी वस्तु का उपयोग करने वाले श्रमणों में से आशय की शुद्धि या अशुद्धि के कारण तथा अनजाने या भूल आदि के कारण कभी किसी को पापकर्म का बंध होता है, कभी किसी को बंध नहीं होता है यह सर्वज्ञो के ज्ञान का विषय है अत: छद्मस्थ साधक इस विषय में आग्रह युक्त कथन नहीं कर सकता। (7) औदारिक आदि पाँचों शरीर परस्पर कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न एकमेक होकर रहते हैं तथा पाँचों शरीरों की शक्ति-सामर्थ्य में भी विभिन्नता होती है। [यहाँ पाँच शरीरों में से आदि, मध्य, अंत के तीन शरीरों का कथन है तथापि उपलक्षण से पाँचों शरीर का ग्रहण कर लिया जाता है।] (8) लोक और अलोक दोनों का अस्तित्व स्वीकारना चाहिये उसी तरह लोक में जीव-अजीव, धर्म-अधर्म, बंध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आश्रवसंवर, वेदना-निर्जरा ये सभी तत्त्व हैं इनका स्वीकार करना चाहिये | 101