________________ आगम निबंधमाला . . . अर्थात् इनका निषेध नहीं करना चाहिये / (9) संसारी जीवों को क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि होते हैं और उनका यथायोग्य कर्मबंध रूप फल भी जीवों को भोगना पडता है। (10) चार गतिरूप संसार का अस्तित्व है, देव-देवियाँ और सिद्ध भगवान का अस्तित्व भी लोक में है और सिद्धि स्थान रूप जीवों का निजस्थान भी लोकाग्र में है, ऐसा स्वीकारना चाहिये। (11) लोक में साधु-सुसाधु भी होते हैं और असाधु कुसाधु भी होते हैं अर्थात् सच्चा साधुपणा कोई पालन कर. ही नहीं सकता, ऐसा नहीं बोलना चाहिये। (12) संसार में अच्छे कार्य-आचरण भी है, खराब आचरण भी है और उनका यथायोग्य परिणाम-फल भी जीव को प्राप्त होता है, ऐसा स्वीकारना चाहिये। कुछ अज्ञानी लोग स्वयं को पंडित मानकर ऐसा कथन करते हैं कि अच्छा खराब ऐसा कुछ भेद नहीं करना चाहिये / जीव के स्वभाव से जो प्रवृत्ति हो जाय उसे होने देना चाहिये। सहज भाव में वर्तते रहना चाहिये। अच्छे-खराब के विकल्पों में नहीं फँसना चाहिये / ऐसा कथन करने वाले कर्मबंध को समझते नहीं है। जिससे वे स्वयं अज्ञान दंशा से यथेच्छ पाप-प्रवृत्ति करते हैं और दूसरों को भी स्वच्छंद वृत्ति में संलग्न करते हैं / ऐसे प्राणी प्रत्याख्यान या आत्म साधना, इन्द्रिय-निग्रह, कषाय-विजय आदि कुछ भी नहीं करते हुए मिथ्यात्व, अज्ञान के कारण दुर्गति के भागी बनते हैं। वास्तव में अनादिकाल से संसारप्रवाह में प्रवहमान जीवों के पाप आचरण परिचित हो जाते हैं, उन्हें ज्ञानियों की संगति से समझना चाहिये और अनादि कुटेवों का, कुसंस्कारों का विवेकपूर्वक त्याग करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि आत्मा को निरंकुश नहीं छोडकर ज्ञान रूप अंकुश में रखकर जिनेश्वरों द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करके आत्म साधना संयम साधना-आराधना युक्त जीवन जीना चाहिये। तभी आत्मकल्याण और मोक्ष प्राप्ति संभव होती है। (13) संसार के समस्त पदार्थ हैं जैसे ही रहते हैं, उनमें परिवर्तन होना भ्रम मात्र है, ऐसा कथन करना अज्ञानभरा है / वास्तव में प्रत्येक पदार्थों की पर्यायों का अवस्थाओं का परिवर्तन होता रहता है / (14) जगत में सुख दुःख दोनो है, सुखीदुःखी दोनों प्रकार के प्राणी है, ऐसा समझना चाहिये / किंतु सभी आत्माएँ दुःखी ही है, कोई सुखी है ही नहीं, ऐसा कथन नहीं करना | 102] - - - - - -