________________ आगम निबंधमाला चाहिये। (15) सभी जीव अपनी उम्र अनुसार जीते-मरते हैं अत: किसी भी प्राणी को मारने से कुछ नहीं होता, ऐसा कथन नहीं करना चाहिये / क्यों कि किसी भी प्राणी के प्राणों को नष्ट करना हिंसा पाप है / जो 18 पापों में प्रथम पाप है / स्वयं के पाप के परिणाम और पाप की प्रवृत्ति से कर्मबंध होता है तथा कर्म ही दुःख का मूल है, संसार है / (16) कोई पापी अपराधी प्राणी राजदंड से मृत्यु का आभागी है उसे यह अवद्य है, मारने योग्य नहीं है, ऐसे व्यवहार से विपरीत वचन भी साधु को नहीं बोलना चाहिये / किंतु मौन रहकर, तत्संबंधी चिंतन से मुक्त रहकर साधना में लीन रहना चाहिये और कदाचित् वैराग्यपूर्ण अनुकंपा के भावों को उपस्थित करके संसार भावना के स्वरूप का विचार करना चाहिये / (17) जिनाज्ञा अनुसार संयम का यथार्थ पालन करने वालों के प्रति अपनी अज्ञानता से या मलिन विचारों से 'यह तो ढोंगी है' कपट क्रिया करने वाले हैं, ऐसी मान्यता-विचारधारा रखनी नहीं चाहिये / (18) किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी रूप कथन भी साधु को नहीं करना चाहिये / यथा- अमुक व्यक्ति के पास से दान-दक्षिणा प्राप्त होगी ही या प्राप्त नहीं होगी / क्यों कि दोनों व्यक्तियों के अंतराय कर्म के क्षयोपशम अनुसार होता है। उसे सर्वज्ञ ही जान सकते हैं / अतः छद्मस्थ को ऐसे कथन करने में कभी मिथ्या कथन का दोष लग सकता है / अत: इस प्रकार के भावी विषयक कथन से साधु को दूर ही रहना चाहिये / उपरोक्त सभी विषयों में जैसी आगम आज्ञा है जैसा जिनेश्वर का आदेश है तदनुसार ही अपनी श्रद्धा-प्ररूपणा एवं आचरण तथा भाषा का प्रयोग करने चाहिये / ए सा विवेक व्यवहार और शुद्ध संयमानुष्ठान साधक को मोक्ष प्राप्ति पर्यंत निरंतर करते रहना चाहिये / इस प्रकार की शिक्षा अध्ययन की अंतिम तेतीसवीं गाथा में दी गई है। निबंध-४९ अपात्र और अयोग्य को ज्ञान क्यों देना - पात्रता में विनय व्यवहार के सिवाय अन्य गुण भी विचारणीय होते हैं / विनय व्यवहार नहीं करने में व्यक्ति का क्या आशय है ? 103