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________________ आगम निबंधमाला और व्याख्याकारों ने इन चार के 363 कुल भेद किये हैं। चिंतन करते हुए इन भेदों को समझने पर दुनिया के सभी मतमतांतरों का इनमें समावेश नहीं हो सकता। फिर भी एक सीमा में बंध कर किसी भी तरह 363 भेद में सभी मतों का समावेश हो जाता है, ऐसा मान लिया जाता है। ऐसी कथन परंपरा भी बह प्रचारित है। उसी कारण से लोक में 363 पाखंड मत कहे जाते हैं। परंतु ऊपर बताये गये चार समवसरण के भेद-प्रभेदरूप 363 प्रकार जो हैं उन्हें 363 पाखंड की संज्ञा में बैठाना पुनः विचारणा करने योग्य है / क्यों कि ईश्वर कर्तृत्ववादी, नियतिवादी अनेक वाद दुनिया में है जिनका ऊपर बताये गये 363 भेदों में समावेश नहीं हो सकता। वर्तमान में होने वाले दादा भगवान का मत, सोनगढी, श्रीमद् आदि के पंथों को इन भेदों में समझाना कठिन है। अत: चार समवसरण के व्याख्याकारों ने जो 363 भेद किये हैं. उन्हें उस रूप में समझा जा सकता है, इसके साथ अन्य भी अनेक मतमतांतरों के रूप हो सकते हैं, यह भी स्वीकारना चाहिय / निबंध-४४ उच्च गुणों पर पानी फेर देने वाले अवगुण एक श्रमण सर्वथा अकिंचन है / भिक्षा द्वारा निर्वाह करता है। उसमें भी रूखा सूखा आहार प्राप्त करके प्राण धारण करता है / इतना उच्चाचारी होकर भी यदि वह अपनी ऋद्धि-लब्धि एवं भक्तों की जमघट या ठाठ बाठ का, अपने शरीर का गर्व करता है, अपनी प्रशंसा और प्रसिद्धि की आकांक्षा करता है, वह जन्म-मरण की वृद्धि करता है / एक श्रमण भाषाविज्ञ है, हितमित प्रिय भाषण करता है, प्रतिभा संपन्न है, शास्त्रज्ञान में निपुण-विशारद है, प्रज्ञावान बुद्धिशाली है एवं धर्म भावना से उसका हृदय अच्छी तरह से भावित है परन्तु इतने गुणों के होते हुए भी कभी अहंभाव में आकर दूसरों का तिरस्कार करता रहता है, दूसरो की निंदा करता है, उन्हें झिडक देता है, अपने लाभ के मद में अन्य की हीलना करता है / वह साधक समाधि भ्रष्ट हो जाता है / वह गुणवान होते हुए भी मूर्ख की कोटि में हो जाता है / ___ ऐसे तुच्छ प्रकृति के साधक अपनी प्रज्ञा के मद में सारे गुणों पर / 92
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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