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________________ आगम निबंधमाला पानी फेर देते हैं / उनका यह लोक परलोक दोनों ही बिगडता है अर्थात् यहाँ भी निंदा पाते हैं और विराधक बनते हैं / निबंध-४५ _ मुनि को उपदेश का विवेक सुसाधु द्वारा मुनिधर्म की मर्यादा में अबाधक यथातथ्य धर्मोपदेश देने या धर्म युक्त मार्गदर्शन देने का इस अध्ययन में संकेत किया गया है, वह इस प्रकार है- (1) मुनि स्वयं सदा धर्म में रति भाव एवं संसार के प्रति अरति भाव में सफल होवे / फिर वह अकेला हो या समूह के साथ हो; प्ररूपणा तो वही करे जो मुनिधर्म के और आगम के अविरुद्ध हो, सुसंगत हो / (2) सुसाधु धर्म का महत्त्व बताते हुए यह प्रेरणा करे कि जीव अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही फल भोगता है, जन्मता भी अकेला है और मरकर परभव में भी अकेला ही जाता है, धर्म के सिवाय उसका कोई मित्र सहायक नहीं है / (3) कर्मबंध के कारण मिथ्यात्व, अव्रत आदि; कर्म बंध से मुक्ति रूप, मोक्ष और उसके उपाय रूप, सम्यग्दर्शन, संयम आदि का यथार्थ स्वरूप गुरु-आचार्यादि से जानकर जनहितकारक धर्मोपदेश देवें। (4) निंदित-गर्हित कार्य- सप्तव्यसन आदि अथवा अन्याय, अनीति, शास्त्र विपरीत प्ररूपण आदि अकृत्य नहीं करके जीवन में सदाचरण अपनाने का उपदेश करे / सदाचरण-धर्माचरण से परभव संबंधी फल की इच्छा-संकल्प-निदान कदापि नहीं करना ऐसा समझाना चाहिये / परंतु केवल मुक्ति के लक्ष्य से ही धर्माचरण करने कराने का उपदेश देना चाहिये / सार यह है कि अकरणीय कार्यों को नहीं करने का और करणीय कार्यों में शुद्ध लक्ष्य रखने का उपदेश द्वारा समझाना चाहिये / (5) श्रोता के अभिप्राय, प्रकृति, पद, सत्ता का एवं उसके श्रद्धेय देव-गुरु का एवं अपनी क्षमता-शक्ति आदि का विचार करके, विवेक के साथ, गंभीरतायुक्त भाषा की शालीनता से उपदेश देवें / भाषा या भाव के अविवेक से अथवा श्रोता के मानहानि आदि के कारण कई प्रकार की आपत्ति, विवाद, वैमनस्य पैदा हो सकते हैं / साधु को आक्रोश, वध परीषह आने की स्थिति भी पैदा हो सकती है, उपदेष्टा का तिरस्कार या बहिस्कार भी किया जा सकता है / अतः / 93
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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