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________________ आगम निबंधमाला हं / शास्त्रकार इस अध्ययन में स्पष्टीकरण करते हैं कि मुनि इन स्थानों, कार्यों को धर्म या पुण्य कहकर स्पष्ट प्रेरणा करे तो वहाँ होने वाले आरंभ समारंभ की अनुमोदना-प्रेरणा होने से साधु का प्रथम महाव्रत दूषित होता है / यदि प्रतिपक्ष में होकर साधु गृहस्थों द्वारा किये जाने वाले अनुकंपा के इन कार्यों का निषेध करे अथवा इन्हें पाप या अधर्म बतावे तो भी उसका प्रथम महाव्रत दूषित होता है। क्यों कि ऐसा करने में प्राणियों की जीवनवृत्ति का छेद-अंतराय दोष लगता है; जो कि हिंसा रूप है। अत: जैन मुनि प्रश्नगत विषयों में अर्थात् दान-पुण्य क स्थलो अथवा कार्यों संबंधी पक्ष-प्रतिपक्ष रूप किसी भी आग्रह में न पडे, दोनों पक्ष की भाषा न बोले और विवेक के साथ कर्म बंध से बचे, तो वह निर्वाण मार्ग की सही आराधना कर सकता है। सार यह है कि- मुनि उपस्थित परिषद के योग्य जीव तत्त्व, पुण्य-पाप तत्त्व का स्वरूप, अनुकंपा धर्म का समुच्चय स्वरूप, यथावसर समझावे, प्रश्न निर्दिष्ट स्थलों या कार्यों की स्पष्ट चर्चा में न जावे / . . राजप्रश्नीय सूत्र में केशीस्वामी द्वारा प्रदेशी राजा को दिया गया बोध एवं चर्चा का प्रकरण है। उसमें प्रतिबद्ध होने के बाद राजा ने स्वत: स्पष्ट किया कि मैं राज्य की आय का एक हिस्सा दानशाला में लगाउँगा। वहाँ मुनि के द्वारा दानशाला की प्रेरणा का भी उल्लेख नहीं है और प्रदेशी राजा के स्वत: दानशाला की भावना प्रगट करने पर केशी श्रमण द्वारा निषेध किया गया हो ऐसा भी उल्लेख नहीं है / गृहस्थ धर्म और गहस्थ भावों के हर प्रवर्तन में जैन मनि को दखल करना जरूरी नहीं होता है, कितने ही कार्यों में उन्हें तटस्थ और मौन भाव से रहना होता है / तदनुसार केशी श्रमण ने प्रदेशी राजा के उस कथन को मौन पूर्वक ही सुना / उसके पक्ष-प्रतिपक्ष में कुछ नहीं कहा अर्थात् उसके दानशाला खोलने की बात पर धन्यवाद भी नहीं कहा और ऐसा करने से रोका भी नहीं। इस आगम दृष्टांत से भी प्रस्तुत अध्ययनगत भावों की पुष्टी होती है कि मुनि दोनों प्रकार की भाषा नहीं बोले / इस प्रकार गृहस्थ के मिश्र मार्ग से संबंधित विचारणा, मुनि की भाषा को लक्ष्य करके इस अध्ययन की गाथा 16 से 21 तक की गई है। / 87
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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